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उठने में ही मनुष्यता की शुरुआत है
एक जगह भी रुकते थे। तो पचास हजार भिक्षुओं को खिलाना, क्षमता की बात थी। आज तो पूरा गांव भी पांच भिक्षुओं को खिलाने में समर्थ नहीं रह गया है। संपन्न था देश, खूब समृद्ध था। सोने की चिड़िया ऐसे झूठे ही नहीं कहा जाता था! बुद्ध के समय में इस देश ने सबसे ऊंचा शिखर देखा समृद्धि का। उस समृद्धि के शिखर पर ही बुद्ध और महावीर प्रगट हुए। फिर दुबारा बुद्ध और महावीर के प्रगट होने का उपाय न हुआ।
.. इसलिए यह कुछ आश्चर्य की बात नहीं है कि आज अमरीका में धर्म के संबंध में प्रगाढ़ रस है। होगा ही। होना ही चाहिए। जहां समृद्धि है, जहां पेट पूरी तरह भर गया है, वहां आत्मा का खालीपन दिखायी पड़ने लगता है। इनमें सीढ़ी दर सीढ़ी संबंध है। जिस आदमी ने नींव भर ली मकान की वही तो दीवालें उठाएगा न। नींव ही नहीं भरी तो दीवाल कैसे उठेगी? और जिसने दीवाल उठा ली वह छप्पर रखेगा। दीवाल ही नहीं उठी तो छप्पर कैसे रखेगा? और छप्पर उठ गया तो फिर स्वर्ण का कलश, स्वर्ण-कलश चढ़ाएगा। .. धर्म तो स्वर्ण-कलश है। धर्म तो आखिरी ऊंचाई है। उसके पार तो फिर कछ भी नहीं है। जिसने नीचाइयों की सुविधाएं अभी नहीं जुटायीं, वह ऊंचाइयों के सपने भला देखे, लेकिन सत्य में उन्हें उपलब्ध न हो सकेगा। . इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि कोई गरीब व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। गरीब व्यक्ति चेष्टा करके अपवाद हो सकता है। लेकिन गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता है। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि समृद्ध समाज अनिवार्य रूप से धार्मिक हो जाएगा, लेकिन समृद्ध समाज की धार्मिक होने की संभावना है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हर समृद्ध व्यक्ति धार्मिक हो जाएगा। लेकिन समृद्ध व्यक्ति की धर्म की तरफ उत्सुकता बढ़ने की ज्यादा संभावना है बजाय असमृद्ध व्यक्ति के।
हमारे भीतर तीन तल हैं-शरीर की जरूरतें हैं, फिर मन की जरूरतें हैं, फिर आत्मा की जरूरतें हैं। शरीर की जरूरतें हैं-रोटी, रोजी, कपड़ीं, मकान। फिर मन की जरूरतें हैं—संगीत, साहित्य, कला। अब जिसका भूख से भरा पेट है, वह शेक्सपियर पढ़ेगा? कैसे पढ़ेगा! कालिदास को समझेगा? कैसे समझेगा! शास्त्रीय संगीत सुन पाएगा? इधर पेट में भूख कचोटती होगी, शास्त्रीय संगीत नहीं समझ पाएगा, न.सुन पाएगा। मन की जरूरतें। जब मन की जरूरतें भी भर जाती हैं, शास्त्रीय संगीत में भी अब कुछ नहीं दिखायी पड़ता, वह संगीत भी चुक गया, अब किसी और बड़े संगीत की खोज शुरू होती है, तब ध्यान। एक ऐसे संगीत की खोज शुरू होती है जहां वाद्य की भी जरूरत नहीं रह जाती। एक ऐसे संगीत की खोज शुरू होती है जो भीतर बज ही रहा है, जिसको बजाना नहीं पड़ता-अनाहत नाद-जो अपने से बज रहा है-ओंकार-तब आत्मा की जरूरतें शुरू होती हैं।