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एस धम्मो सनंतनो
तुम अपने जीवन का जरा विश्लेषण करो। कितनी बार तुमने क्रोध किया है, और हर बार क्रोध के बाद पछताए हो; हर बार, बिना नागा पछताए हो; निरपवाद पश्चात्ताप हुआ है। और हर बार निर्णय किया है कि अब नहीं, अब नहीं करूंगा क्रोध, इससे कुछ सार नहीं है। कितनी बार कामवासना में उतरे हो, हर बार विषाद ने घेरा है। हर बार थके-मांदे, पराजित विचार में पड़ गए हो कि पाया क्या, मिला क्या? कितनी आतुरता से गए थे, कितनी कामना थी, कितने सपने संजोए थे, सब धूल-धूसरित पड़े हैं। अब नहीं, अब नहीं, बहुत बार निर्णय किया है। और घंटे भी नहीं बीत पाते, दिनों की तो बात दूर, और फिर वासना प्रबल हो उठती है।
तो तुम सीखते हो? नहीं, सबसे आश्चर्यजनक बात यही कि आदमी अनुभव से सीखता नहीं।
जो आदमी अनुभव से सीखने लगता है, वह धीरे-धीरे श्रेय की तरफ जाने लगता है। क्रोध प्रेय है, अक्रोध श्रेय है। काम प्रेय है, अकाम श्रेय है। लोभ प्रेय है, दान श्रेय है। ऐसे धीरे-धीरे अनुभव से सीखकर तुम पाओगे, जिनको बुद्ध ने प्रेय कहा है, वे छूटते चले जाते हैं। और जिनको श्रेय कहा है, वे तुम्हारे जीवन में धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जड़ें जमाने लगते हैं। और जब श्रेय की जड़ें जम जाती हैं तुम्हारी चेतना में, तुम्हारी आत्मा जब उनकी भूमि बन जाती है, तो जीवन में जो फूल खिलते हैं, वे ही वस्तुतः प्रेय हैं।
तो जिसे हम श्रेय की तरह शुरू करते हैं, शुभ की तरह शुरू करते हैं, अंततः पाते हैं, वही प्रिय है। और जिसे हम प्रेय की तरह शुरू करते हैं, उसका श्रेय होना तो दूर, आखिर में पाते हैं कि वह प्रेय भी नहीं है। इसलिए प्रेय की दिशा में जाने वाले आदमी का नाम है संसारी, और श्रेय की दिशा में जाने वाले आदमी का नाम है संन्यासी। ___ तुम चैतन्य की भाषा में समझो-सोया हुआ आदमी प्रेय की तरफ भागता है, जागा हुआ आदमी श्रेय की तरफ उठने लगता है।
दूसरा प्रश्नः
भगवान बुद्ध को उस विधवा पर भी दया नहीं आयी जिसका इकलौता नन्हा मृत्यु ने छीन लिया था। और उन्होंने मृत्यु-शय्या पर पड़े स्वर्णकार को मृत्यु की तैयारी करने का उपदेश दिया। दूसरी तरफ जीसस क्राइस्ट ने अंधे को आंख, रोगी को आरोग्य और मृत को जीवनदान किया। फिर भी आश्चर्य है कि बुद्ध महाकारुणिक कहलाते हैं। किनकी करुणा अधिक है,
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