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________________ उठने में ही मनुष्यता की शुरुआत है तुम्हारे सपने को तोड़ देगी। और कभी-कभी जब जीवन का विषाद और जीवन का दुख तुम्हें अतिशय काटने लगेगा तो तुम आत्महत्या की नहीं सोचोगे, तुम आत्म-रूपांतरण की सोचोगे। तुम कहोगे कि ठीक है, अगर यह जीवन दुखपूर्ण है, कष्टपूर्ण है और अगर यहां रस नहीं बह रहा है, तो जीवन समाप्त नहीं हो जाता है, एक और भी जीवन है। बुद्ध जैसा जीवन है। __ आधुनिक युग में जब तुम्हारे जीवन में कष्ट होता है, कठिनाई होती है, तो कोई द्वार नहीं मिलता। तब तुम्हें ऐसा लगता है, अब खतम ही कर लो अपने को, अब क्या सार है! यही रोज-रोज उठना, यही रोज-रोज काम करना, यही पत्नी, यही पति, यही झगड़े, यही कलह, यही चिंताएं, यही जिम्मेवारियां, आखिर इसमें सार क्या है ? और दस साल जीएंगे तो यही-यही दोहरेगा। इससे तो बेहतर अपने को समाप्त कर लो। दुनिया में आत्महत्या करने वालों की संख्या रोज बढ़ती जाती है। पश्चिम में बहुत बढ़ गयी है। क्योंकि पश्चिम से संन्यासी तो विदा ही हो गया, उसकी तो कहीं झलक ही नहीं मिलती। चर्च में जो पादरी है, या सिनागाग में जो रबाई है, वह भी संन्यासी नहीं है, वह भी तुम जैसा संसारी है, उसके जीवन में भी कुछ नहीं है, उसकी मौजूदगी में भी कुछ नहीं है, उसकी मौजूदगी भी किसी और जीवन की नयी शैली का इंगित नहीं देती, कोई पुकार नहीं है, कोई आह्वान नहीं है। तो बुद्ध ने यह परंपरा तोड़ दी। बुद्ध ने कहा कि विवाह में तो अगर संन्यासी उपलब्ध हों तो जरूर बुला लेना। ताकि उस समय युवक और युवती जो विवाह में बंध रहे हैं, अभी बड़ी आशाओं से, ये आशाएं कल टूटने ही वाली हैं, क्योंकि इन आशाओं के पूरे होने का कोई उपाय नहीं है। यह जो बड़ी-बड़ी कल्पनाएं संजोकर जा रहे हैं, ये कल्पनाएं आज नहीं कल धूल-धूसरित हो जाएंगी। तब इनके सामने एक बात स्मरण में रहनी चाहिए-एक और भी जीवन की शैली है, यही जीवन सब कुछ नहीं है। तब ये बुद्ध की तरफ मुड़ सकेंगे। संन्यास की तरफ मुड़ सकेंगे। . तो यह जो छोटी सी घटना है, यह समझने जैसी है। श्रावस्ती में एक कुलकन्या का विवाह है। मां-बाप ने भिक्षु-संघ के साथ शास्ता को भी निमंत्रित किया। भगवान भिक्षु-संघ के साथ आकर आसन पर विराजे। कुलकन्या भगवान के चरणों में झुकी और फिर अन्य भिक्षुओं के चरणों में। उसका होने वाला पति उसे देखकर नाना प्रकार के काम-संबंधी विचार करता हुआ रागाग्नि से जल रहा था। ___ यही स्त्रियों और पुरुषों में बुनियादी फर्क है। स्त्री का जो काम है, वह निष्क्रिय काम है। वह ठंडी आग है। पुरुष का जो काम है, वह सक्रिय काम है। वह प्रज्वलित अग्नि है। इसलिए स्त्री को धर्म के जगत में यात्रा करना ज्यादा सुगम पड़ता है, बजाय पुरुष के। क्योंकि पुरुष के भीतर की सारी ऊर्जा सक्रिय है, बहिर्गामी है। स्त्री के
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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