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________________ परमात्मा अपनी ओर आने का ही ढंग करे, यह बात छोटी हो गयी। सागर को ही कहने दो। लेकिन अगर तुम मंसूर से पूछोगे तो मंसूर हंसेगा, अगर तुम मंसूर से पूछोगे तो वह कहेगा कि गालिब पागल है। अभी भी कुछ फासला रहा होगा कहने में। अन्यथा बूंद और सागर में छोटे-बड़े का फासला क्यों? ओछे की बात ही क्यों उठती है? अगर बूंद सागर है, तो फिर ओछापन क्या? कहो या न कहो। अगर पता चल गया, कहा कि न कहा, क्या भेद पड़ेगा? फिर डरना किससे है? ओछा किसके सामने होने का भय है ? जब बूंद को पता ही चल गया, तो क्यों रुके? क्यों न नाचे? क्यों न गुनगुनाए? क्यों न कहे? अगर मंसूर से पूछो तो मंसूर कहेगा, यह भी छुपा हुआ अहंकार है, जो कह रहा है कि यह बात ओछी हो गयी। अपने ही मुंह से कहें कि हम ब्रह्म हैं, यह बात छोटी हो गयी। लेकिन मंसूर कहेगा, ब्रह्म ही कह रहा है, हम तो हैं ही नहीं। अगर ब्रह्म ही कह रहा है कि हम ब्रह्म हैं, तो बात छोटी कैसे हो गयी? दोनों ही ठीक हैं। दोनों ही गलत हैं। अगर तुम एक के दृष्टिकोण को पकड़ लो, तो दूसरा गलत मालूम होगा। और अगर तुम दोनों की दृष्टियों में गहरे झांको, तो दोनों सही मालूम होंगे। और मैं चाहता हूं कि तुम्हें दोनों सही मालूम पड़ें। क्योंकि मंसूर को ओछा कहने में गालिब ने खुद को भी ओछा कर लिया। यह मंसूर की आलोचना में भूल हो गयी। - मैं चाहता हूं कि तुम कहीं भी इतने कुशल हो जाओ, तुम्हारी दृष्टि ऐसी पैनी हो जाए कि द्वैत तुम्हें धोखा न दे पाए। कोई भक्ति का गुणगान करे, तो तुम ज्ञान का गुणगान सुन सको। कोई ज्ञान का गुणगान करे, तो तुम्हें भक्ति की रसधार बहती मालूम पड़े। तुम्हें रूप में भी अरूप दिखायी पड़े। तुम्हें प्रेम में भी ध्यान का अनुभव हो। तुम्हें मरुस्थल में भी कमल खिलते हुए दिखायी पड़ने लगें। मेरी सारी चेष्टा यही है कि कैसे तुम द्वंद्व के बाहर आओ। __ इसलिए विपरीत दिखायी पड़ने वाली बातें तुमसे रोज कहे जाता हूं। कब तक अड़े रहोगे? तुम जम भी नहीं पाते, तुम्हें खिसका देता हूं। तुम सिंहासन लगाकर बैठने की तैयारी ही कर रहे होते हो कि सिंहासन खींच लेता हूं। अभी तुम भक्त होकर बैठने की तैयारी ही कर रहे थे कि बुद्ध आ गए। अभी तुमने चाहा ही था कि नारद की पकड़ लें बागडोर कि बुद्ध ने सब झकझोर दिया। मेरी सारी चेष्टा यही है कि तुम कहीं जम न पाओ। क्योंकि तुम जमे, वहीं भूल हो जाती है। तुम जमे यानी तुम्हारा अंधकार जमा। तुम जमे यानी तुम्हारा अहंकार जमा। तुम जमे यानी कोई दृष्टिकोण बना, कोई दृष्टि बनी, कोई पक्षपात पैदा हुआ। और मन की सदा यही चेष्टा है कि वह यह मान ले कि मैं ठीक हूं और दूसरा गलत है। मजा मैं ठीक हूं इसके मानने में है। रस अहंकार का यही है कि मैं ठीक हूं। कोई भी बहाना हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? भक्ति ठीक हो कि ज्ञान ठीक हो, एक
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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