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झुकने से उपलब्धि, झुकने में उपलब्धि
धर्म तो बहुत हैं, उत्तम धर्म एक है । धर्म तो हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, जैन है, बौद्ध है; उत्तम धर्म विशेषणशून्य है। उत्तम धर्म शास्त्र में नहीं, स्वयं में है । उत्तम धर्म किसी दूसरे के सिखाए नहीं सीखा जाता, अपने ही अनुभव, अपने ही जीवन की कसौटी पर कस-कसकर पाया जाता है। धर्म सीखा जा सकता है, उत्तम धर्म जीया जाता है। वेद में, कुरान में, बाइबिल में जो है, वह धर्म है। अब तो धम्मपद है, वह भी धर्म है। जब तुम्हारे भीतर जागरण होता है और तुम गवाह हो जाते हो वेदों के, कुरानों के, बाइबिलों के, धम्मपदों के; जब ... ।
अभी तो ऐसा होता है, तुम वेद पढ़ते हो, तुम कहते हो, शायद ठीक हो, शायद ठीक न हो, कौन जाने ? अभी तुम चेष्टा करके मान भी लो कि बुद्ध जो कहते हैं ठीक ही कहते होंगे, तो भी यह चेष्टा ही होगी, श्रद्धा न होगी । भीतर कहीं संदेह खड़ा ही रहेगा।
लेकिन फिर एक ऐसी घड़ी आती है तुम्हारे ही ध्यान की, तुम्हारे ही मौन की कि.. तुम भी इसी सत्य के दर्शन को उपलब्ध होते हो, जिसको बुद्ध उपलब्ध हुए हैं, महावीर उपलब्ध हुए हैं, वेदों के ऋषि उपलब्ध हुए हैं; मोहम्मद ने पाया, क्राइस्ट ने पाया; तुम्हारी आंखें भी उसी परमसत्य को देखती हैं। तुम खुद ही आ गए गौरीशंकर के करीब । अब यह कोई सुनी-सुनायी बात न रही। यह कोरी हवा में उठी बात न रही। अब यह तुम्हारा अपना अंतरदर्शन हुआ । यह तुम्हारा अनुभव हुआ । यह शीतलता तुमने पायी। यह आनंद तुमने भोगा। यह नाच तुम्हारे जीवन में उठा। यह सुगंध तुम्हें घेर गयी। अब तुम यह कह सकते हो कि वेद सही हैं। इसलिए नहीं कि वेद सही होने चाहिए, बल्कि इसलिए कि मेरा अनुभव कहता है । अब तुम कह सकते हो कि बुद्ध ठीक हैं। इसलिए नहीं कि बुद्ध गलत नहीं हो सकते, बल्कि इसलिए कि अब मेरा बुद्धत्व कहता है कि उनके ठीक होने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। मैं गवाह हूं ।
उत्तम धर्म का अर्थ है, जिस दिन तुम गवाह बन जाओ। और वैसा जीवन ही जीवन है । बुद्ध कहते हैं, एक क्षण भी उत्तम धर्म का जीवन जी लिया, अर्थात अपने अनुभव का, अपने प्रकाश का, अपनी ज्योतिर्मयता का, तो सौ वर्ष जीने से बेहतर है।
आज इतना ही ।
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