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आत्म-स्वीकार से तत्क्षण क्रांति
अलग-अलग है। और एक-एक मनका इतना सुंदर है कि मैं अभिभूत हो जाता हूं। तो कल जब इस फकीर की बात कर रहा था, तब तुमने सोचा होगा, कि फकीर ने बिलकुल ठीक किया। क्योंकि मैं डूबा था बिलकुल । मैं फकीर के स्वभाव के साथ लीन हो गया था। आज जब तुमने मेरा सवाल पूछा तो मुझे मेरी याद आयी । तो अब मैं तुमसे कहता हूं
हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे कहते हैं कि गालिब का है अंदाजे बयां और
क्यों मैंने तुम्हें स्वीकार किया ? क्योंकि स्वीकार मेरा आनंद है।
इसे भी तुम समझ लो । तुम्हारे कारण स्वीकार नहीं किया है, अपने कारण स्वीकार किया है। साधारणतः लोग स्वीकार करते हैं तुम्हारे कारण। वे कहते हैं, तुम सुंदर हो, इसलिए स्वीकार करते हैं; तुम सुशील हो, इसलिए स्वीकार करते हैं; तुम संतुलित हो, इसलिए स्वीकार करते हैं; तुम संयमी हो, इसलिए स्वीकार करते हैं। यह बात ही नहीं है। स्वीकार करना मेरा स्वभाव है, इसलिए स्वीकार करता हूं। तुम कैसे हो, यह हिसाब लगाता ही नहीं ।
कौन माथापच्ची करे कि तुम कैसे हो ! कौन समय खराब करे! मेरा प्रयोजन भी क्या है कि तुम कैसे हो ! यह तुम्हीं सोचो! मैं तुम्हें स्वीकार करता हूं। यह स्वीकार बेशर्त है। इसमें कोई शर्त नहीं है कि तुम ऐसे हो तो स्वीकार करूंगा, तुम ऐसे हो तो स्वीकार करूंगा। और जब मैं तुम्हें बेशर्त स्वीकार करता हूं, तो मैं तुम्हें एक शिक्षण दे रहा हूं कि तुम भी अपने को बेशर्त स्वीकार करो ।
जरा देखो, जब मैंने तुम्हें स्वीकार कर लिया तो तुम क्यों अड़चन डाल रहे हो ? तुम तो अपने मुझसे ज्यादा करीब हो । जब मैंने भी बाधा न डाली तुम्हें स्वीकार करने में, कोई मापदंड न बनाया, तो तुम क्यों ... ?
एक गीत मैं पढ़ता था कलचुकती जाती है आयु, किंतु भारी होती जाती गठरी मन तो बेदाग, मगर तन की चादर में लाख लगीं थिगरी धर दी संतों ने तो जैसी की तैसी उमर - चदरिया यह पर मैं दुर्बल इंसान, कहां तक रक्खूं इसे साफ-सुथरी बचपन ने इसे भिगो डाला
यौवन ने मैला कर डाला अब जाने कब रंगरेज मिले
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