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________________ आत्म-स्वीकार से तत्क्षण क्रांति गुलाम नहीं हो। तुम्हें मेरी छाया नहीं बननी है। अगर तुम मेरे हाथ का सहारा भी लेते हो तो वह भी तुम्हारी मौज। तुम लेते हो तो मैं खुश हूं, तुम न लो तो भी मैं खुश हूं, क्योंकि तुम्हारी मौज में मैं किसी तरह की बाधा नहीं डालना चाहता। इसलिए मैं तुम्हारे ऊपर कोई अनुशासन आरोपित नहीं करता हूं। न मैं तुमसे कहता हूं, ऐसा करो; न मैं तुमसे कहता हूं, वैसा करो। मैं कहता हूं, जहां से तुम्हें मौज, जहां से तुम्हें सुख के स्वर सुनायी पड़ते हों, वैसा करो। तुम्हारे सुख का मैं कैसे निर्णायक हो सकता हं! मैं हं कौन, जो तुम्हारे बीच में आऊं? तुमने अगर मुझे अपने पास खड़े रहने का मौका दिया, तुम्हारी कृपा है; लेकिन तुम्हारे जीवन के बीच में नहीं आ सकता, तुम्हारी राह में नहीं आ सकता। तुम अगर मुझसे कुछ सीख लो, तुम्हारी मौज है; लेकिन मैं तुम्हें मजबूर नहीं कर सकता कुछ सीखने को। तुम अपनी मौज से मेरे पास आते हो, मुझे स्वीकार है। कोई आ जाता है तो स्वीकार है, कोई चला जाता है तो स्वीकार है। - चार-पांच दिन पहले एक युवती आयी। उसने यूरोप से नाम मांगा था, संन्यास मांगा था, उसे पहुंचा दिया था। कभी आयी नहीं थी, कभी मुझे देखा नहीं था, कोई पहचान न थी। आयी फिर, कहने लगी कि मैं तो कुछ बेचैनी अनुभव करती हूं संन्यास में, कुछ बंधा-बंधापन मालूम पड़ता है। तो मैंने कहा, तू माला वापस कर दे। संन्यास तो तुझे मुक्त करने को है, बांधने को नहीं है। ___वह थोड़ी घबड़ायी, क्योंकि उसने यह कभी सोचा न था। उसने सोचा होगा, मैं समझाऊंगा, बुझाऊंगा कि ऐसा कभी नहीं करना। मैंने कहा, तू देर मत कर अब। वह कहने लगी, मुझे सोचने का मौका दें। मैंने कहा, तू फिर सोच लेना, माला अभी तू छोड़; क्योंकि बंधी-बंधी सोचेगी भी तो सोचना भी तो पूरा न हो पाएगा। तू मुक्त होकर सोच और यह माला तेरे लिए प्रतीक्षा करेगी, जब तू सोच ले, और सोच ले ठीक से और पाए कि तेरी स्वतंत्रता में बाधा नहीं है, फिर ले लेना। तू अगर एक हजार एक बार आएगी और लौटाएगी और वापस आएगी, तो भी मुझे कोई अड़चन नहीं है। मगर बेमन से, जरा सी भी अड़चन तेरे मन में हो रही हो, तो मैं खिलाफ हूं। मैं तुझे अड़चन दूं, यह मुझसे न होगा। ___ वह तो बहुत घबड़ाने लगी। वह तो कहने लगी कि यह तो...आप मुझे इतनी स्वतंत्रता दे रहे हैं कि मैं यह भी छोड़ दूं! इतनी ही स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का अर्थ ही होता है कि अगर मेरे विपरीत जाने की स्वतंत्रता न हो तो क्या खाक स्वतंत्रता है! और जब मैं तुम्हें मुझसे विपरीत जाने की भी स्वतंत्रता देता हूं, फिर भी अगर तुम मेरे पास हो, तो उस होने में कुछ गौरव है। अगर वह स्वतंत्रता ही न हो, सारा गौरव समाप्त हो गया। ___तो उस गुरु की वह जाने। मैं ऐसा न कर पाता। इससे तुम यह मत सोचना कि मैं उसकी निंदा कर रहा हूं। इतना ही कह रहा हूं कि मैं मैं हूं, वह वह है। उस गुरु की 257
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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