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________________ एस धम्मो सनंतनो हो । किसी भी तुलना से अड़चन में पड़ोगे | सभी तुलनाएं झंझट का कारण बन जाती हैं। अगर तुमने मान लिया कि तुम्हारी नाक को तुलना करनी है... किसी की लंबी नाक, तुम्हारी छोटी - अब क्या करना ! किसी की छोटी, तुम्हारी बड़ी - अब क्या करना ! कोई नाक का मापदंड थोड़े ही है । सब नाकें योग्य हैं, सुंदर हैं; उनसे श्वास लेने का काम हो जाता है, बस काफी है। लेकिन तुमने अगर आधार बना लिया कि लंबी नाक, तो तुम्हारी छोटी अड़चन में पड़े ! छोटी है तो लंबी दिखायी पड़ने लगी किसी की, अब अड़चन में पड़े। तुम पांच फीट छह इंच हो, कोई छह फीट है— अड़चन में पड़े । तुम ऐसी तुलना रोज कर रहे हो – कोई गोरा है, तुम काले हो; कोई बड़ा प्रतिभाशाली है, तुम साधारण हो; कोई बड़ा पुण्यात्मा है, तुम बड़े पापी हो- तुम तुलना में पड़े हो। तुलना दुख का कारण है । मैं तुमसे कहता हूं, तुलना छोड़ो। तुम तुम हो। तुम किसी जैसे नहीं हो। तुम अंगीकार करो अपने को, आलिंगन करो अपने को। उसी से तुम्हारा विकास होगा। और मैं तुमसे कहता हूं, जिसने अपने को पूरा स्वीकार किया, तत्क्षण क्रांति शुरू हो जाती है। क्योंकि पूरी स्वीकृति में तुम्हारी सारी की सारी ऊर्जा मुक्त हो जाती खंडों से। तुम्हारे भीतर संगीत बजने लगता है। इस जगत में जो लोग भी परमबोध को उपलब्ध हुए हैं, वे वे ही लोग हैं जिन्होंने अपने को परिपूर्ण रूप से अंगीकार कर लिया। बुद्ध कोई चेष्टा न कर रहे थे कि राम जैसे हो जाएं, और न कृष्ण चेष्टा कर रहे थे कि राम जैसे हो जाएं। ऐसी चेष्टा करते होते तो वैसे ही भटकते जैसे तुम भटक रहे हो । बुद्ध ने अपने होने को खोजा । कृष्ण अपने होने को खोजा। तुम भी अपना होना खोजो । और यह मैं तुमसे इसलिए कहता हूं कि जिस दिन मैंने अपने जीवन में तुलना छोड़ी, उसी दिन मैंने पाया । जब तक तुलना थी, अड़चन रही। जिस दिन मैंने अपने को स्वीकार किया, उसी दिन मैंने एक गहरा सूत्र पाया - सभी को स्वीकार करने का। तब से मैंने किसी की निंदा नहीं की। कोई भी मेरे पास आया है, वह वैसा है, निंदा की बात क्या है ! इसलिए मैंने तुम्हें स्वीकार किया, क्योंकि मैं अपने को स्वीकार करता हूं। तुम पूछते हो, क्यों? इसलिए मैंने तुम्हें स्वीकार किया है, क्योंकि मैं अपने को स्वीकार करता हूं। अगर तुम्हारी यही मौज है कि तुम पात्र को गंदा रखो, तो मुझे यह भी स्वीकार है। आखिर तुम अपने मालिक हो । पात्र तुम्हारा है। अगर तुम्हें मक्खियों में रस है, आशीर्वाद ! और मैं क्या कर सकता हूं ! अगर तुम ही रस ले रहे हो अपने पात्र को गंदा रखने में, तो तुम अपने मालिक हो। कोई और तुम्हारे ऊपर नहीं है। मैं कम से कम तुम्हारे ऊपर बैठता नहीं । I यहां मैं तुम्हें साथ दे सकता हूं मित्र की तरह, तुम्हारा मालिक नहीं हूं। तुम मेरे 256
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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