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________________ आत्म-स्वीकार से तत्क्षण क्रांति इतना पता चलता है कि थक गए हैं अपनी बेचैनी से, अन्यथा प्रश्न वहीं के वहीं खड़े हैं। प्रश्न तो दर्शनशास्त्र एक भी हल नहीं कर पाया। तुम अकारण हो। तुम्हारा जन्म क्यों हुआ? कोई उत्तर नहीं है। अकारण होने को स्वीकार करने में अड़चन क्या है? कहीं तो स्वीकार करना ही पड़ेगा, तो यहीं स्वीकार कर लेने में क्या अड़चन है? ईश्वर को तो सभी धर्म कहते हैं, अकारण। उसका कोई कारण नहीं है। तो जो बात ईश्वर के लिए तुम स्वीकार कर लेते हो और तुम्हारे तर्क को कोई अड़चन नहीं आती, वही बात अपने को स्वीकार कर लेने में कहां कठिनाई हो रही है? सभी धर्म कहते हैं, ईश्वर ने जगत को बनाया; और पूछो कि ईश्वर को किसने बनाया, तो नाराज हो जाते हैं। तो वे कहते हैं, अतिप्रश्न हो गया। सीमा के बाहर जा रहे हो। सीमा के बाहर कोई भी नहीं जा रहा है, सिर्फ तुम उनकी जमीन खींचे ले रहे हो। क्योंकि अगर इस प्रश्न को वे स्वीकार करें तो फिर उत्तर कहीं भी नहीं है। अगर वे कहें ईश्वर को महाईश्वर ने बनाया, तो फिर महाईश्वर को किसने बनाया? यह तो बात चलती ही रहेगी, इसका कोई अंत न होगा। तो कहीं तो रोकना ही पड़ेगा। ___मैं तुमसे कहता हूं, शुरू ही क्यों करते हो? जब रुकना ही पड़ेगा, और बड़े भद्दे ढंग से रुकना पड़ेगा। तुम्हारे बड़े से बड़े दार्शनिक भी जबर्दस्ती तुम्हें चुप करवाए हुए हैं। ___कहते हैं, जनक ने एक बहुत बड़ा पंडितों का सम्मेलन बुलाया था और उसमें हजार गाएं सोने से उनके सींग मढ़कर द्वार पर खड़ी कर दी थी, कि जो जीत जाएगा, जो सभी प्रश्नों के उत्तर दे देगा, जो सभी को निष्प्रश्न कर देगा, ये हजार गाएं उसके लिए हैं। श्रेष्ठतम गाएं थीं। उनके सींगों पर सोना चढ़ा था, हीरे जड़ दिए थे। स्वभावतः पंडित आए। बड़ा विवाद मचा। फिर भरी दुपहरी में याज्ञवल्क्य आया। उसे अपने पर बड़ा भरोसा रहा होगा। वह तार्किक था, महापंडित था। उसने अपने शिष्यों को कहा कि ये गाएं तुम जोतकर आश्रम ले जाओ, थक गयी हैं धूप में खड़े-खड़े, विवाद का निपटारा मैं पीछे कर लूंगा। इतना भरोसा रहा होगा अपने पर कि पुरस्कार पहले ले लो! विवाद का निर्णय तो अपने पक्ष में होने ही वाला है। निश्चित ही उसने सारे पंडितों को हरा दिया। उसके शिष्य तो गायों को जोतकर आश्रम ले गए। जनक भी भौचक्का रह गया, इतना भरोसा! लेकिन एक स्त्री ने उसे मुश्किल में डाल दिया। जब सारे पंडित हार चुके तब एक स्त्री खड़ी हुई, गार्गी उसका नाम था। और उसने कहा कि तुम कहते हो, ब्रह्म ने सबको सम्हाला है, तो ब्रह्म को किसने सम्हाला है? उसने याज्ञवल्क्य की कमजोर नस छू दी। वह क्रोध से भर गया। उसने कहा, गार्गी! जबान बंद रख! यह अतिप्रश्न है। तेरा सिर गिर जाएगा-या तेरा सिर गिरा दिया जाएगा। उपनिषद इस कथा को यहीं छोड़ देते हैं। इसके आगे क्या हुआ, पता नहीं। हो 245
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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