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________________ अशांति की समझ ही शांति तो दूर, सिर्फ अंधविश्वासों के जाल इकट्ठे हो गए हैं। इसलिए बुद्ध को मजबूरी में कहना पड़ा, जिसके संदेह समाप्त नहीं हुए हैं, उस मनुष्य की शुद्धि असंभव है। __ जहां संदेह हैं, वहां अशुद्धि रहेगी। संदेह कांटे की तरह चुभता रहेगा। प्राण शांत न हो सकेंगे। फिर तुम कुछ भी करो। तो बुद्ध ने वे सारी बातें गिना दी हैं जो तथाकथित तपस्वी करते रहे हैं। नंगे रहने से कुछ भी न होगा। जटाजूट धारण करने से कुछ भी न होगा। धूल लपेट लेने से, राख लपेट लेने से कुछ भी न होगा। उपवास करने से कुछ भी न होगा। कड़ी भूमि पर सोने से कुछ भी न होगा। उकडूं बैठने से कुछ भी न होगा। क्योंकि महावीर को उकडूं बैठे-बैठे समाधि उपलब्ध हो गयी थी तो कई नासमझ उकडूं बैठे थे कि चलो, महावीर को उकडूं बैठने से समाधि उपलब्ध हुई, उनको भी हो जाएगी। अभी भी बैठे हैं। __मूल क्रांति भीतर घटती है, बाहर से कुछ लेना-देना नहीं है। हां, ऐसा भी हो सकता है कि कोई उकडूं बैठा हो और भीतर की घटना घट जाए। और ऐसा भी हो सकता है, कोई शीर्षासन कर रहा हो और भीतर की घटना घट जाए। ऐसा भी हो सकता है, कोई बैठा हो, कोई चल रहा हो और भीतर की घटना घट जाए। ये तो बाहर की सांयोगिक बातें हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है। बुद्ध वटवृक्ष के नीचे बैठे थे, घटना घट गयी। तब से बौद्ध वटवृक्षों के नीचे बैठ रहे हैं, कि शायद...। वृक्ष से क्या लेना-देना है? लोगों ने तीर्थ बना लिए हैं उन स्थानों पर जहां किसी को घटना घट गयी थी। वे वहां जा-जाकर बैठते हैं कि शायद...। असली बात देखो। भीतर की तरफ देखो। तो बुद्ध का इशारा यह है कि संदेह समाप्त हो गए हों, भीतर से संदेह का उपद्रव मिट गया हो।. __ अगर भीतर थोड़ा भी संदेह है, तो तुम जो कुछ भी करोगे वह अधूरा-अधूरा होगा। नग्न रहोगे तो अधूरी नग्नता होगी। भीतर तो संदेह बना ही रहेगा, पता नहीं! उपवास करोगे तो अधूरा उपवास होगा; भीतर तो कोई कहता ही रहेगा, क्यों भूखे मर रहे हो? कहीं भूखे मरने से कुछ होता है? धूल लपेटोगे, लपेटते रहना, लेकिन हाथ अधूरे ही रहेंगे। पूजा करना, प्रार्थना करना, लेकिन सब अधूरा रहेगा। पूरा चाहिए। जब हृदय पूरा का पूरा किसी कृत्य में लीन हो जाता है, वहीं प्रार्थना आविर्भूत हो जाती है। _____ तो बुद्ध कह रहे हैं, जब तक तुम सर्वांगीण समग्रता से, संदेहशून्य हुए कुछ न करोगे, कुछ भी न होगा। बढ़ाओ कल्पना के जाल, तब भी स्वप्न बाकी हैं लगाओ तर्क के सोपान, तब भी प्रश्न बाकी हैं तुम कितनी ही सीढ़ियां लगाओ तर्क की, इससे कुछ हल न होगा। प्रश्न थोड़े पीछे ढकलते जाएंगे, बस। फिर-फिर खड़े हो जाएंगे। उत्तर चाहिए, तर्क की सीढ़ियों 229
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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