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महोत्सव से परमात्मा, महोत्सव में परमात्मा
ही एक प्रक्रिया है। जैसे सौ डिग्री पर पानी भाप हो जाता है, ऐसी ही सौ डिग्री नृत्य की एक प्रक्रिया है, जहां तुम तिरोहित हो जाते हो। अचानक तुम पाते हो कहां गया मैं, और यह कौन नाचने लगा! यह कौन आ गया!
निश्चित, यही मेरी देशना है। परमात्मा को जीना है, तो अभी। और कोई उपाय नहीं। .. तैयारी की जरूरत नहीं है, साज तैयार है। वीणा उत्सुक है कि तुम छेड़ो तार। गीत प्रतीक्षा कर रहा है कि गाओ। परमात्मा कब से बैठा राह देख रहा है कि तुम नाचो, तो मैं नाचूं। बहुत देर ऐसे ही हो चुकी, अब और मत प्रतीक्षा करो और कराओ। तुम जरा करके भी तो देखो मैं क्या कह रहा हूं। __तुम्हारी आदतों के विपरीत है, मैं जानता हूं, लेकिन आदतें तो तोड़नी हैं। आदत तो तुम्हारी दुखी और उदास होने की है। आदत लेकिन तोड़नी है। तोड़े ही टूटेगी। टूटते-टूटते ही टूटेगी। और अगर बात समझ में आ जाए तो इसी क्षण छलांग लगाकर तुम आदत के बाहर हो सकते हो। ... थोड़ा मौका दो, इस दृष्टि को भी थोड़ा मौका दो। इस क्षण से ऐसे जीओ जैसे कि परमात्मा साथ है, भीतर है। एक ढंग से तुम जीकर देख लिए हो, कुछ पाया नहीं। इस ढंग को भी एक मौका दो, अवसर दो, ऐसे भी जीकर देखो। मैंने पाया है, और मैं तुमसे कहता हूं, तुम भी पा सकते हो।
आज इतना ही।
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