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पहला प्रश्न :
महोत्सव से परमात्मा, महोत्सव में परमात्मा
भगवान, मैं आपको वर्षों से सुन रहा हूं। लंबे अर्से से मैं आपके पास हूं। मैंने समय-समय पर आपसे कई भिन्न-भिन्न वक्तव्य और परस्पर विरोधी वक्तव्य सुने, लेकिन उनके संबंध में कहीं कोई प्रश्न मेरे मन में नहीं उठा। और उनके बावजूद आप मेरी दृष्टि में और मेरे हृदय में सदा-सर्वदा एक औ और अखंड बने रहे। इस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।
रे पास दो ढंग से हो सकते हो। एक तो विचार से, बुद्धि से, और एक हृदय से और भाव से । बुद्धि और विचार से अगर मेरे पास हो, तो बड़ी अड़चन होगी। रोज-रोज विरोधी वक्तव्य होंगे। रोज-रोज तुम्हें सुलझाना पड़ेगा, फिर भी तुम सुलझा न पाओगे ।
बुद्धि कभी कुछ सुलझा ही नहीं पाती। जहां सीधी-सीधी बात हो, वहां भी बुद्धि उलझा लेती है । तो मेरी बातें तो बड़ी उलझी हैं। जहां सब साफ-सुथरा हो, वहां भी बुद्धि समस्याएं खड़ी कर लेती है । तो मैं तो उन रास्तों की बात कर रहा हूं जो बड़े धुंधलके से भरे हैं। एक ही रास्ते की बात हो, तो भी बुद्धि विरोध खोज लेती है। ये
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