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आज वनकर जी!
बड़ा प्यारा सूत्र है। 'यदि तुमने टूटे हुए कांसे की भांति अपने को निःशब्द कर लिया...।'
कांसा, कांसे का बर्तन तब तक बजता है जब तक टूटा न हो। तो जब बाजार तुम खरीदने जाते हो कांसे का बर्तन, तो बजाकर देखते हो। अगर बजता हो तो साबित है। अगर न बजता हो तो टूटा है।।
बुद्ध कहते हैं, 'यदि तुमने टूटे हुए कांसे की भांति अपने को निःशब्द कर लिया...।'
अगर तुम्हारा अहंकार ऐसे टूट जाए जैसे कांसे का बर्तन टूट जाता है, तो तुम्हारे भीतर फिर शब्द न उठेंगे।
तो पहले तो कठोर शब्द मत उठने दो, कोमल शब्द उठाओ; फिर तो कोमल शब्द भी कठोर मालूम होंगे। पहले तो कांटों से बचो, फूल उगाओ। फिर तो फूल भी कांटों जैसे चुभेंगे। क्योंकि और भी एक जगत है-शून्य का-जहां कोई स्वर ही नहीं। निःशब्द का, मौन का। कठोर वचन, कोमल वचन, फिर वचनशून्यता। तो ऐसे हो जाओ कि तुम्हारे भीतर कोई वचन ही न उठे, शब्द ही न उठे। उठो, बैठो, चलो-भीतर शांति रहे, मौन, नीरव। आकाश में कोई बादल भी न हो। तुम्हारी वीणा बिलकुल सो जाए। इसको बुद्ध ने निर्वाण की अवस्था कहा है।
'लेकिन हम तो छोटी-छोटी चीजों से उत्तप्त हो जाते हैं। जरा-जरा सी बातें हमें उबला देती हैं। हम बड़े पतले ठीकरे हैं। जरा सी आंच कि उबल जाते हैं। बच्चन का एक गीत है
इतने मत उत्तप्त बनो। मेरे प्रति अन्याय हुआ है। ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण करने लगा अग्नि-आनन हो गुरु गर्जन, गुरुतर तर्जन । शीश हिलाकर दुनिया बोली पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह
इतने मत उत्तप्त बनो। छोटी-छोटी बातें बहुत हो चुकी हैं। कितने लोगों को कितनी गालियां नहीं दी गयी हैं ? तुम्हें किसी ने दे दी, कुछ नया हो गया?
इतने मत उत्तप्त बनो। लोग गालियां देते ही रहे हैं, तुम्हारे लिए कुछ नया आयोजन थोड़े ही किया है! लोग निंदा करते ही रहे हैं, तुम्हारे लिए कोई विशेष व्यवस्था थोड़े ही की है! और ध्यान रखो, तुम न होते तो भी वे गाली देते, किसी और को देते। तुम तो सिर्फ बहाने थे।
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