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________________ अकेलेपन की गहन प्रतीति है मुक्ति जाना चाहते हो तो जाओगे। तुम नहीं जाना चाहते, तुम्हें कोई भेज नहीं सकता। यह तुम ईश्वर को दोष देने की बात ही छोड़ दो। ___ अब यह बड़े मजे की बात है। अगर तुम धन्यवाद दोगे, तो दोष भी दोगे। अगर पूजा करोगे, तो निंदा भी करोगे। अगर प्रार्थना पर तुम्हारा भरोसा है, तो कहीं शिकायत भी मौजूद रहेगी। ऐसे तुम कहोगे, हे परमात्मा! तू महान कृपाशाली है, अनुकंपावान है, लेकिन नजर के किनारे से तुम देखते रहोगे: अनुकंपा हो रही है कि नहीं? कि हम कहे चले जा रहे हों और तुम-कुछ हो रहा ही नहीं है। सिर्फ हमी दोहराए जा रहे हैं, तुम हमारे अनुसार चल भी रहे कि नहीं? शिकायत भी भीतर खड़ी होती रहेगी। जहां धन्यवाद है, वहां शिकायत रहेगी। शिकायत धन्यवाद का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। या धन्यवाद शिकायत का शीर्षासन करता हुआ रूप है। वे एक ही चीज के दो नाम हैं, दो पहलू हैं। बुद्ध कहते हैं, न शिकायत, न कोई धन्यवाद। वहां कोई है ही नहीं जिसे धन्यवाद दो। और कोई है नहीं जिसकी शिकायत करो। बुद्ध तुम्हें अपने पर फेंक देते हैं। बुद्ध तुम्हें इस बुरी तरह से अपने पर फेंक देते हैं; रत्तीभर तुम्हें सहारा नहीं देते, हाथ नहीं बढ़ाते। वे कहते हैं, सब हाथ खतरनाक हैं, सब सहारे खतरनाक हैं। उन्हीं सहारों के आसरे तो तुम भटक गए हो। आलंबन मत मांगो। तुम अकेले हो, तुम्हारी नियति अकेली है। इससे तुम राजी हो जाओ। दरिया को अपनी मौज की तुगयानियों से काम , कश्ती किसी की पार हो या दरमियां रहे सागर को अपनी लहरों का मजा है। तुम्हारी कश्ती पार हो या न हो, इससे सागर का कोई प्रयोजन नहीं। सागर को अपनी बाढ़ में मौज है। तुम डूबो कि बचो, तुम जानो। बुद्ध तुम्हें अपना पूरा-पूरा मालिक बना देते हैं। यद्यपि यह मालकियत बड़ा महंगा सौदा है। यह मालकियत बड़ी कठिन है। क्योंकि तुम इतने अकेले छूट जाते हो कि बहाना भी नहीं बचता। फिर तुम यह नहीं कह सकते कि मैं दुखी हूं तो कोई और जिम्मेवार है। तुम ही जिम्मेवार हो। इसे थोड़ा समझें। ___ मनुष्य का मन सदा यह चाहता है कि जिम्मेवारी किसी पर टल जाए। यह मनुष्य की गहरी से गहरी चाल है। तुम जब दुखी होते हो, तुम तत्क्षण खोजने लगते हो-कौन मुझे दुखी कर रहा है? तुम कभी यह तो सोचते ही नहीं कि दुख मेरा दृष्टिकोण हो सकता है। पत्नी ने कुछ कहा, पति कुछ बोल गया, बेटे ने कुछ दुर्व्यवहार किया, समाज ने ठीक से साथ न दिया, राज्य दुश्मन है, परिस्थिति प्रतिकूल है, तुम कहीं न कहीं तत्क्षण बहाना खोजते हो। क्योंकि एक बात तुम मान ही नहीं सकते कि तुम अपने कारण दुखी हो। 137
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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