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अकेलेपन की गहन प्रतीति है मुक्ति
पहला प्रश्न:
. हम तो जीते-जी और सोते-जागते भय और अपराध-भाव के द्वारा अशेष नारकीय पीड़ा से गुजर चुकते हैं। क्या यह काफी नहीं है? कि मरने के बाद फिर हमें नर्क भेजा जाए!
पहली बात, कोई भेजने वाला नहीं है। कोई भेजता नहीं। तुम जाते हो।
- इसे बहुत ठीक से समझ लो। अन्यथा बुद्ध के दृष्टिकोण को पकड़ नं पाओगे।
बुद्ध के दृष्टिकोण में जो अत्यंत आधारभूत बात है, वह यह है-धर्म, ईश्वर से शून्य। अगर तुम किसी भांति ईश्वर को पकड़े रहे, तो बुद्ध के धर्म को समझ न पाओगे। ईश्वर के बहाने तुमने किसी दूसरे पर दायित्व छोड़ा है।
तुम कहते हो, दुख तो हम भोग चुके बहुत, अब हमें नर्क न भेजा जाए-जैसे तुम्हें कोई भेजने वाला है! कि प्रार्थना और पूजा हमने इतनी की, अब हमें स्वर्ग भेजा जाए-जैसे कि कोई पुरस्कार बांट रहा है। वहां कोई भी नहीं है।
बुद्ध कहते हैं, तुम अकेले हो। और तुम्हें इस अपने अकेलेपन को इसकी समग्रता में स्वीकार कर लेना है। इस अकेलेपन की गहरी प्रतीति से ही मुक्ति होगी।
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