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________________ एस धम्मो सनंतनो श्रृंखला के कारण भारत को एक बात समझ में आनी शुरू हुई कि यह तो पुनरुक्ति है, यह तो चाक का घूमना है। फिर वही आरे ऊपर आ जाते हैं, फिर नीचे चले जाते हैं, फिर ऊपर आ जाते हैं। बड़ी ऊब पैदा हो गयी। और जिस व्यक्ति को जीवन से ऊब पैदा हो जाए, वही जीवन से मुक्त होता है। तो पुनरुक्ति मत करो। कल जो क्रोध किया था, काफी कर लिया, अब दुबारा मत करो। कल यश मांगा था, खूब मांग लिया, क्या पाया? अब मत मांगो। कल तक धन के लिए दौड़े, अब रुको। धीरे-धीरे पुनरुक्ति से अपने हाथों को छुड़ाओ। मरने के पहले पुनरुक्ति से अपने को छुड़ा लेना, अन्यथा मरकर तुम फिर पुनरुक्त हो जाओगे। क्योंकि मरते क्षण जो आकांक्षा होगी, वही तुम्हारे नए जन्म की शुरुआत हो जाती है। _ 'मरणोपरांत कोई गर्भ में उत्पन्न हो जाता है, कोई पाप कर्म करने वाले नरक में चले जाते हैं, कोई सुगति वाले स्वर्ग को जाते हैं।' स्वर्ग और नर्क भावदशाएं हैं। मरने के बाद जिस व्यक्ति ने जीवन में कष्ट ही कष्ट, दुख ही दुख का अभ्यास किया है, वह एक महान दुखांत नाटक में पड़ जाता है मन के। भयंकर दुख और पीड़ा में पड़ जाता है। उसका मन, जिसको दुख-स्वप्न कहते हैं, उससे गुजरता है। वह दुख-स्वप्न अंतहीन मालूम होता है। नर्क कहीं है नहीं। नर्क केवल तुम्हारा एक दुख-स्वप्न है। तुम्हारे जीवनभर के दुखों की तुमने जो अनुभूति इकट्ठी कर ली है, उसमें से पुनः गुजर जाने का नाम है। जिस व्यक्ति ने जीवनभर अहोभाव से जीया, बुरा न किया, बुरा न सोचा, बुरो न हुआ, और जिसने घाव न बनाए, जिसने अपने को सावधान रखा, सावचेत रखा, वह मरने के बाद एक बड़े मधुर स्वप्न से गुजरता है। वह मधुर स्वप्न ही स्वर्ग है। वह भी अंतहीन मालूम होता है। लेकिन चाहे नर्क से गुजरो, चाहे स्वर्ग से गुजरो, वह स्वप्न ही है। अंततः फिर तुम्हें वापस लौट आना पड़ता है। कितना ही लंबे सुख में रहो, संसार में फिर वापस लौट आते हो। चुक जाता है पुण्य भी, पाप भी। इसलिए एक नया अनुभव भारत में पैदा हुआ, और वह यह था कि सुख के पार जाना है, जो कभी न चुके। एक ऐसी अवस्था खोजनी है चैतन्य की, जिससे कोई गिरना न हो। एक ऐसा अतिक्रमण, एक ऐसी परात्पर चैतन्य की दशा, जिससे फिर कोई नीचे उतरना न हो। उसे हम ब्रह्मभाव कहें—बुद्ध ने निर्वाण कहा, महावीर ने कैवल्य कहा-या जो भी नाम हमें प्रीतिकर हो। ___'न अंतरिक्ष में, न समुद्र के गर्भ में, न पर्वतों के विवर में प्रवेश कर-संसार में कोई स्थान नहीं है, जहां रहकर प्राणी पापकर्मों के फल से बच सके।' __ पाप किया है, तो फल से बच न सकोगे। कोई प्रार्थना न बचाएगी। कोई पूजागृह न बचाएगा। 128
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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