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________________ एस धम्मो सनंतनो कि पाप कर लेंगे, फिर क्षमा मांग लेंगे। यह मत सोचना कि खुदा तो गफूर है। यह मत सोचना कि वह बड़ा करुणावान है, तो वह क्षमा कर देगा। वहां कोई भी नहीं है, जो तुम्हारे कृत्य को बदल दे; तुम्हारे अतिरिक्त। तो पाप किया है, तो प्रार्थना से तुम उसे काट न सकोगे। पाप किया है, तो होश से काटना पड़ेगा। इसलिए बुद्ध धर्म में प्रार्थना की कोई जगह नहीं है। ध्यान की जगह है। ध्यान का अर्थ है-होश। प्रार्थना का अर्थ है-परमात्मा की करुणा को पुकारना। कहीं अस्तित्व से तुम कुछ सहारा न पा सकोगे। कोई रिश्वत देने का उपाय नहीं है। कोई स्तुति काम न आएगी, कोई खुशामद काम न पड़ेगी। बुद्ध यह कह रहे हैं कि तुम अपने कृत्य को बहुत सोचकर करना, क्योंकि तुम्हारा कृत्य ही अंतिम रूप से निर्णायक है। तुम्हारे कृत्य को काटने वाला कोई भी नहीं है। तुम्हीं काटोगे, कटेगा। तुम्हीं बनाओगे, बनेगा। इस पथ के हर राही का विश्वास अलग है सबका अपना प्याला अपनी प्यास अलग है जीवन के चौराहे खंडहर पर मिलते हैं पतझड़ सबका एक, महज मधुमास अलग है मौत तो सबकी एक है, लेकिन जीवन सबका अलग है। पतझड़ सबका एक, महज मधुमास अलग है लेकिन वसंत सबका अलग है। सभी लोग एक से मरते दिखायी पड़ते हैं। श्वास रुक जाती है। अगर चिकित्सक से पूछो, तो संत के मरने में और पापी के मरने में कोई फर्क न कर सकेगा। लेकिन बुद्धपुरुषों से पूछो, तो बड़ा फर्क है। पापी के लिए उपाय है कि या तो वह पुनरुक्त करेगा-जो किया वही फिर दोहराएगा-या और भी नीचे उतर जाएगा। जो किया उससे भी नीचे गिर जाएगा। जिस कक्षा में बैठा था उससे भी नीचे उतार दिया जाएगा। फिर पुण्यात्मा है, जिसने जीवन में संपदा को गंवाया नहीं, बचाया, सुरक्षित किया। उसके लिए महासुख का द्वार है। उसके जीवन में वसंत आएमा, मधुमास आएगा। और सबसे पार बुद्धपुरुष हैं। उनके लिए न स्वर्ग है, न नर्क है। पश्चिम में यह बात समझनी बड़ी मुश्किल होती है। पश्चिम के धर्म स्वर्ग और नर्क के ऊपर कोई श्रेणी नहीं जानते। लेकिन पूरब के सभी धर्म स्वर्ग और नर्क को अंतिम नहीं मानते, स्वर्ग और नर्क को भी संसार का ही हिस्सा मानते हैं। फिर एक आखिरी श्रेणी है, जहां आदमी दुख के तो पार हो ही जाता है, सुख के भी पार हो जाता है। क्योंकि जब तक सुख है तब तक दुख की संभावना है। जब तक संपदा है तब तक खोने का डर है। एक ऐसी घड़ी चाहिए जहां कोई सुख भी न हो। दुख तो गया दूर, सुख भी दूर जा चुका। एक ऐसी परम विश्रांति, एक परम उपशांत दशा चाहिए, जहां सुख भी अड़चन न डाले। 124
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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