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________________ एकला चलो रे सम्यक आहार, सम्यक व्यायाम, सम्यक ध्यान, सम्यक समाधि इत्यादि आठ अंग। इन आठ अंगों को जो साधता है...। दृष्टि की थिरता को जो साधता है तो सम्यक दृष्टि हो जाता है। देखने की कला को जो साधता है-बिना विचार के देखने की कला का नाम है, सम्यक दृष्टि। आंख विचारों से भरी हो तो विचार विकृत कर देते हैं, जो भी तुम देखते हो। आंख विचारों से न भरी हो तो तुम वही देखते हो, जो है। तब सत्य आविर्भूत होता है। सम्यक दृष्टि से यात्रा शुरू होती है, सम्यक समाधि पर पूरी होती है। सम्यक समाधि का अर्थ है : ऐसी अंतर-दशा, जहां सब समाधान हैं...सब समाधान हैं...सब समाधान हैं। कोई प्रश्न न बचा; ऐसी निष्प्रश्न दशा। उस घड़ी में सत्य अपने सभी बूंघट उठा देता है। उस घड़ी में जीवन तुम्हारे चारों तरफ नाच उठता है। उस घड़ी में जीवन की मधुशाला तुम पर सब तरफ से बरस जाती है। 'जिनका चित्त संबोधि अंगों का अच्छी तरह अभ्यास कर रहा है।' । अभ्यास करना होगा। लंबा तमस है, लंबा आलस्य है, तोड़ना होगा, चोट करनी होगी। छेनी उठाकर श्रम की, ध्यान की, चारों तरफ जो पथरीलापन इकट्ठा हो गया है, उसे काटना होगा, ताकि भीतर का झरना फिर से बह सके। 'जो अनासक्त हो परिग्रह के त्याग में सदा निरत है।' जो सदा यह चेष्टा कर रहा है कि मेरे अतिरिक्त मेरा और कुछ भी नहीं। वही अनासक्त होने की चेष्टा में लगा है। मेरे अतिरिक्त मेरा और कुछ भी नहीं। मैं ही बस मेरा हूं। ऐसी भावदशा जिसकी थिर होती जा रही है। _ 'जो क्षीणास्रव है।' उसके कर्म क्षीण होने लगते हैं। वह कर्ता भी है तो अकर्ता होता है। वह चलता भी है तो चलता नहीं, क्योंकि चलाती तो चाह है। मनुज चलता नहीं संसार में चलाती चाह है . जिसकी चाह चली गई, वह चलता भी है और अचल होता हैं। वह भोजन भी करता है और उपवासा होता है। उठता है, बैठता है, सब करता है, लेकिन जैसे कुछ भी करता नहीं। भीतर अकर्ता की स्थिति, साक्षी की स्थिति बनी रहती है। 'जो क्षीणास्रव है।' उसके कर्म धीरे-धीरे क्षीण होने लगते हैं। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को यही कहा है कि तू इतना ही मान ले कि तू उपकरण मात्र है; तू ना-कुछ हो जा, अकिंचन हो जा। तू यह मत कह कि मैं कर रहा हूं, परमात्मा कर रहा है। बुद्ध तो परमात्मा को भी बीच में नहीं लेते। वे कहते हैं, उससे भी कहीं अकड़ आ जाए; उससे भी कहीं अहंकार आ जाए। बुद्ध तो इतना ही कहते हैं, कोई नहीं 81
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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