________________
शब्द : शून्य के पंछी
करो, दर्शनों से सिद्धियां किसको मिली हैं? कौन सिद्ध हुआ है शास्त्रों को पढ़कर? हां, जो सिद्ध हुए हैं, उनसे जरूर शास्त्र जन्मे हैं; वह बड़ी और बात है।
जीव का उद्धार केवल धर्म से है धर्म का क्या अर्थ है? धर्म का अर्थ है : अनुभव में आ जाए जो।
अभी तो तुम जिसे धर्म कहते हो वह भी धर्म नहीं है, दर्शन है। मेरे पास कोई आ जाता है, वह कहता है, मैं जैन-धर्म में मानता हूं। मैं कहता हं, कहो जैन-दर्शन में; मत कहो जैन-धर्म में। क्योंकि जैन-धर्म का तुम्हें कहां पता? महावीर को था, तुम्हें कहां? जैन-दर्शन में, महावीर ने जो कहा, उसमें तुम मानते हो। महावीर ने किसी का कहा नहीं माना, महावीर ने जाना। तुम मानते हो, मान्यता दर्शन तक जाती है। मान्यता एक दृष्टि है, एक दृष्टिकोण है, अनुभव नहीं।
और इसकी कसौटी यही है कि अगर तुमने सुनने की शर्त पूरी की तो तुम उपशांत हो जाओगे।
अनेक बार लोग मुझसे पूछते हैं, सदगुरु की पहचान क्या है? मैं कहता हूं, सदगुरु की तुम फिक्र मत करो, तुम सिर्फ सुनने की कला सीख लो। बस, सदगुरु तुम पहचान लोगे। सदगुरु छिपाएगा तो भी छिपा न सकेगा; तुम पहचान ही लोगे। तुम उसके पास आकर उपशांत होने लगोगे।
जैसे बगीचे के पास आकर शीतल हवाएं तुम्हें छूने लगती हैं, बगीचा दिखाई भी न पड़ता हो तो भी तुम जानते हो, करीब आने लगे बगीचे के। और करीब आते हो, फल की गंध हवाओं में तिरने लगती है: अभी भी बगीचा दिखाई न पड़ता हो, रात अंधेरी हो, तो भी तुम जानते हो कि दिशा ठीक है। गंध बढ़ती चली जाती है, बगीचा करीब आता चला जाता है। लेकिन अगर तुम्हारे नासापुट खराब हों, अगर तुममें सूंघने की क्षमता खो गई हो, तब बड़ी मुश्किल होगी।
तुम यह मत पूछो कि बगीचा कहां है, तुम यह पूछो कि नासापुट कैसे उपलब्ध हों? सूंघने की क्षमता कैसे उपलब्ध हो?
सदगुरु की पूछते हो कि सदगुरु को कैसे पहचानें? तुम कैसे पहचानोगे सदगुरु को? तुम इतना ही करो कि तुम सुनने में समर्थ, तुम इतना ही करो कि तुम सदगुरु को उपलब्ध हो सको, सदगुरु के लिए खुले रह सको; वह तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे तो ऐसा न हो कि तुम सोए रहो और तुम्हें सुनाई न पड़े-बस, इतना काफी है।
जिसने सुनना सीख लिया, जिसे श्रवण की कला आ गई, उसे तत्क्षण समझ में आना शुरू हो जाएगा, कहां मिलती है उपशांति। तब वह चिंता न करेगा कि मंदिर जाऊं, कि मस्जिद जाऊं, कि जैन मुनि को सुनूं, कि हिंदू साधु को सुनूं, कि मुसलमान फकीर को सुनूं, इसकी चिंता न करेगा।
ये चिंताएं नासमझों की हैं। फिर तो वह एक ही भाव करेगा, जहां उपशांत होता हूं, वहां जाऊं। फिर चाहे वह मुसलमान फकीर हो, चाहे जैन मुनि हो, चाहे बौद्ध
283