SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एस धम्मो सनंतनो जाते हैं, तुम केवल प्रतिध्वनि मात्र करते हो, सार्थक नहीं हो सकती। सार्थक पद का अर्थ तो होता है : जो तुमसे जन्मे, जो तुम में भीतर न गया हो, बस भीतर से ही आया हो। सत्य के अनुभव से ही सार्थकता पैदा हो सकती है। बुद्ध कहते हैं, 'निरर्थक पदों से युक्त हजार पदों से भी एक सार्थक पद श्रेष्ठ है, जिसे सुनकर मनुष्य उपशांत हो जाता है।' और जो उसकी उन्होंने परिभाषा की है कि कैसे तुम पहचानोगे, वह पहचान यह है कि जो शब्द शांति से आता है, वह तुम्हें भी शांत कर जाता है। जो शब्द भीतर के निःशब्द से आता है, वह तुम्हें भी क्षणभर को ही सही, निःशब्द की गूंज से भर जाता है, उपशांत कर जाता है। तुमने अगर कभी ऐसे व्यक्ति को सुना, जिसने जाना है, तो उसके शब्दों में तुम्हें शब्दों से कुछ ज्यादा मिलेगा। उसके शब्दों के आसपास शून्य भी सरकता मिलेगा। उसके होने में उसके शब्द पगे होंगे। उसके शब्दों में . मिठास होगी किसी और ही लोक की। उसके शब्द तो बहाने होंगे। ____ उसकी चलती तो वह बिना शब्द के चला लेता। उसकी चलती तो तुमसे चुप ही रहकर कह देता; लेकिन चुप्पी तुम समझ न पाओगे। मजबूरी है, विवशता है, इसलिए शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। लेकिन शब्दों का उपयोग शब्दों के लिए नहीं, शब्दों का उपयोग शून्य के लिए। उसके शब्द बड़े विरोधाभासी होंगे। वह कहेगा कुछ, कहना कुछ और ही चाहता है। कहता हुआ कुछ और मालूम पड़ेगा, कहना कुछ और ही चाहता था। इसलिए अगर तुमने सहानुभूति से न सुना तो तुम उसे न समझ पाओगे। सत्य को उपलब्ध व्यक्ति के वचनों को सुनने का ढंग है, शैली है, व्यवस्था है, कला है। उसके श्रवण को, सुनने को साधारण सुनना नहीं कहा जा सकता। इसलिए महावीर और बुद्ध ने उसके लिए अलग ही शब्द चुना हैः सम्यक श्रवण, राइट लिसनिंग। सुनते तो सभी हैं, मगर ऐसे सुनने से काम न चलेगा। तुम्हें ऐसे सुनना पड़ेगा जैसे तुम मस्तिष्क से नहीं, हृदय से सुनते हो। तुम सोचते नहीं उसे सुनते समय, तुम सिर्फ सुनते हो। तुम गुनते नहीं, तुम सिर्फ उसे पीते हो। पीने की तरह सुनना होगा-बड़ी गहन सहानुभूति से। अगर तुम्हारे भीतर विवाद चले, विचार चले, तो जो कहा गया, वह चूक जाएगा। बड़ा नाजुक है, बड़ा बारीक है, बड़ा सूक्ष्म है; शब्द से भी ज्यादा सूक्ष्म है। लेकिन अगर ऐसा एक भी शब्द तुम अपने प्राणों में पड़ जाने दो तो तुम उपशांत हो जाओगे। तुम तत्क्षण पाओगे, शांति बरस गई। तुम तत्क्षण पाओगे, किसी और ही लोक की प्रभा ने तुम्हें घेर लिया। तुम पाओगे तुम्हारे पैर इस जमीन पर नहीं पड़ रहे, किसी और ही आकाश को छूने लगे। तुम उड़ने लगोगे, चलोगे नहीं। ___ उसके शब्दों में एक मदिरा होगी, जो तुम्हें अपरिचित, अजनबी मस्ती से भर जाएगी। फूलों की गंध तुम उसमें पाओगे, भौंरों की गुनगुनाहट पाओगे, लेकिन 278
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy