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________________ शब्द : शून्य के पंछी की दीवाल है उसके पास; वेद की ईंटें लगी हैं उसकी दीवाल पर। कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, फर्क क्या है? शब्दों का फर्क है। निःशब्द में तो तुम समान हो, न कोई हिंदू है, न कोई ईसाई है, न कोई मुसलमान है। निःशब्द में तो कोई विशेषण नहीं है; वहां तो तुम शून्य, खाली हो; वही तुम्हारा असली होना है। जब तक तुमने जाना कि तुम हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, तब तक तुमने जाना ही नहीं कि तुम कौन हो, तब तक तुमने शब्द जाने। समाज तुम्हें शब्दों से भर देता है। इसी को हम शिक्षण कहते हैं। विद्यालय, विश्वविद्यालय शब्दों से भर जाते हैं। धर्म निःशब्द का विद्यापीठ है। समाज तुम्हें शब्दों से भर देता है, धर्म तुम्हें फिर शब्दों से मुक्त करता है। इसलिए धर्म न तो हिंदू हो सकता है, न इस्लाम हो सकता है, न बौद्ध हो सकता है, न जैन हो सकता है। संप्रदाय हो सकते हैं, क्योंकि संप्रदायों का संबंध शब्दों से है। धर्म का संबंध निःशब्द से है। समाज ने जो सिखाया, धर्म तुम्हें फिर भूलने की क्षमता देता है। समाज ने जो लकीरें खींची, धर्म उन्हें तुम्हें फिर पोंछ देने की कला सिखाता है। समाज अगर शिक्षण है, सीखना है, तो धर्म अनसीखना है, फिर कोरे होना है, फिर सीमाएं तोड़नी हैं, फिर गंगा को सांगर होना है, किनारे छोड़ने हैं। किनारों में होने की सुविधा है, क्योंकि किनारों के बीच होना साफ-साफ होता है। किनारों के बीच होने पर तुम दोनों तरफ सुरक्षित दुर्ग के भीतर होते हो, किनारे छूटते ही तुम अपने से भी छूट जाओगे। गंगा सागर में गिरकर गंगा तो न रहेगी, सागर हो जाएगी। बुद्ध के आज के वचन इस दिशा में हैं। 'निरर्थक पदों से युक्त हजार पदों से भी एक सार्थक पद श्रेष्ठ है, जिसे सुनकर मनुष्य उपशांत हो जाता है।' . कौन से पद निरर्थक हैं? तुम्हारे भीतर शब्दों से ही जो शब्द पैदा होते हैं, वे निरर्थक हैं। तुम्हारे भीतर अगर निःशब्द से कोई शब्द पैदा होता है तो सार्थक है। सार्थक का अर्थ होता है । जिसे तुमने जन्माया; जिसे तुमने अपने प्राणों के अंतर्तम में जन्म दिया; जो तुमसे आया। समाज कुछ डालता है, फिर उसी की प्रतिध्वनि तुमसे आती है; वह निरर्थक है। पहाड़ पर तुम जाते हो, आवाज करते हो, घाटियां और पहाड़ियां तुम्हारी आवाज को प्रतिध्वनित कर देती हैं; वह निरर्थक है। घाटियों ने कुछ भी कहा नहीं, उसमें कुछ अर्थ हो ही नहीं सकता। घाटियों ने कुछ कहा ही नहीं, घाटियों ने सिर्फ दोहराया। घाटियों ने पुनरुक्त किया। घाटियों ने तो वही लौटा दिया, जो उन तक फेंका गया था—भला विकृत किया हो, लेकिन सार्थक तो नहीं हो सकता। तो अगर समाज के शब्द तुम्हारे पास आकर सिर्फ घाटियों की तरह वापस लौट 277
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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