SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरैवेति चरैवेति हो। बाजार में चहलकदमी मालूम होती है, गति मालूम होती है, जीवन मालूम होता है। यह पहाड़ पर तो सब जड़ मालूम होता है। ___ ऐसे ही यह दूसरा पड़ाव आया; इससे भी पार जाना पड़ेगा। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जिसे तुम पहले गति समझते थे, वही जड़ता थी। एक नई गति का अनुभव तुम्हें भीतर होगा, जो चैतन्य की गति है। एक नए जीवन की प्रतीति होगी, जो चैतन्य का जीवन है। ___पर पुराना जीवन छूटे और नया आए, इन दोनों के बीच में एक अंतराल तो पड़ेगा। एक घर छूटा, दूसरे घर में गए, तो पहले तो पहला घर छूटेगा, तब उपद्रव होगा; सारा सामान अस्तव्यस्त होगा, बांधो, बोरिया-बिस्तर भरो, सब गड़बड़ हो जाएगा। अभी तुम दूसरे घर में भी नहीं पहुंचे। रास्ते में रिक्शा-तांगे में अटके हो। सामान लादे जा रहे हैं दूसरे घर में। अभी दूसरा घर भी तो नहीं आया है। तो और भी मुश्किल हो गई, सब सामान अस्तव्यस्त हो गया, बंद हो गया, सब उलझन हो गई। दूसरे घर में जाओगे, व्यवस्थित होओगे, धीरे-धीरे फिर बसोगे, फिर से चीजों को जमाओगे, तब राहत मिलेगी। __ अभी जड़ता मालूम होगी। यह मध्यकाल है। इससे भयभीत मत होना। इस मध्यकाल में न तो बेहोशी रहेगी पूरी और न होश रहेगा पूरा। कुछ-कुछ होश भी मालूम होगा, कुछ-कुछ बेहोशी भी मालूम होगी। और भी उलझन मालूम होगी कि यह क्या हुआ? एक कन्फ्यूजन, विपरीत चीजों का मिला-जुला संगम, एक खिचड़ी की अवस्था होगी। इससे तो लगेगा, पूरे सोए थे वही अच्छा था; कम से कम एकस्वरता तो थी। न पूरे जगे, न पूरी नींद रही; ये बीच में अटक गए! त्रिशंकु जैसी हालत मालूम होगी। तीर छुट चुका प्रत्यंचा से और अभी लक्ष्य पर नहीं पहुंचा। न प्रत्यंचा का सहारा रहा, न लक्ष्य का लक्ष्य में छिद जाए तो सहारा मिले-मध्य में अटका है। ' पर यह स्वाभाविक है, कुछ घबड़ाने की जरूरत नहीं। जो कर रहे हैं ध्यान, उसे जारी रखें; यह मध्यकाल अपने आप बीत जाएगा। है अनिश्चित किस जगह पर सरित गिरि गह्वर मिलेंगे है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे किस जगह यात्रा खतम हो जाएगी यह भी अनिश्चित है अनिश्चित कब कुसुम कब कंटकों के शर मिलेंगे आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले बस, एक ही स्मरण रहे-रुकना नहीं है, चलते जाना है। और बहुत सी संभावनाएं हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है; इसलिए बहुत पड़ाव साफ-साफ नहीं बताए जा सकते। 271
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy