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एस धम्मो सनंतनो
बचे, खाई में गिरे। और दूसरा कांटा खतरनाक है पहले से भी ज्यादा ।
थोड़ी अड़चन होगी समझने में; क्योंकि तुम्हें इस दूसरे कांटे का कोई अनुभव नहीं है। पहले ने पीड़ा दी थी, दूसरे ने पीड़ा छीनी है। लेकिन अगर तुमने इसे सम्हालकर रख लिया, इसे अगर तुमने बहुत आदर दिया, तो आज नहीं कल यह चुभेगा। पहला तो शायद पैर में चुभा था, दूसरा हृदय में चुभेगा । इसे तुमने बहुत सम्हालकर रख लिया; इसे तुमने हृदय के बहुत करीब ले लिया; यह तुम्हें भयंकर पीड़ा देगा।
उपयोग श्रद्धा का जरूरी है, श्रद्धा की पूजा जरूरी नहीं। तो तुम अगर साष्टांग झुकते हो, शुभ है; इससे भी घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है कि भीतर संदेह खड़ा है । जब झुकते हो तब और भी स्पष्ट खड़ा हो जाता है। तब तुम्हारे भीतर का द्वंद्व साफ हो जाता है एक साष्टांग पृथ्वी पर लेटा हुआ है और एक अकड़कर खड़ा हुआ है और देख रहा है कि यह लेटना, यह साष्टांग दंडवत, यह सब व्यर्थ है। पता भी है, यह व्यक्ति भगवान है या नहीं ?
यह व्यक्ति भगवान है या नहीं, इससे कुछ लेना-देना भी नहीं है । यह बात असली मुद्दे की है भी नहीं। इससे तुम्हारा क्या प्रयोजन ? इसे तुम जान भी कैसे पाओगे? इसका उपाय भी क्या है जानने का ? इसके लिए प्रमाण कहां खोजोगे ? कोई उपाय नहीं है तुम्हारे पास । उपाय की जरूरत भी नहीं है।
यह व्यक्ति तो बहाना है, ताकि दूसरा कांटा हाथ में आ जाए। यह व्यक्ति तो निमित्त है। यह न भी हो भगवान तो भी समझदार इसका उपयोग कर लेंगे। और यह भगवान भी हो तो भी नासमझ चूक जाएंगे। इससे प्रयोजन ही नहीं है। पत्थर की मूर्ति भी काम दे सकती है। असली सवाल श्रद्धा के शिक्षण का है। तुम अगर खाली आकाश के सामने सिर झुका सको तो खाली आकाश भी पर्याप्त है। पत्थर की मूर्ति की भी कोई जरूरत नहीं ।
लेकिन कठिनाई होगी। खाली आकाश के सामने सिर झुकाओगे, पागलपन मालूम पड़ेगा; वहां कोई भी तो नहीं है। यहां कम से कम इतना तो है— कोई है | शक - शुबहा ही सही, संदेह ही सही, संदेह के योग्य भी कोई है, इतना भी बहुत है । क्योंकि जिस पर संदेह हो सकता है, उस पर श्रद्धा भी आ सकती है। जहां संदेह आ गया, श्रद्धा बहुत दूर नहीं। जहां श्रद्धा आ गई, संदेह बहुत दूर नहीं ।
भूल कहां हो जाती है ? अगर तुम इस उलझन में पड़ गए कि यह व्यक्ति भगवान है या नहीं? यह पत्थर की मूर्ति वस्तुतः भगवान की मूर्ति है या नहीं? अगर तुम इस चिंता में पड़ गए तो धीरे-धीरे तुम पाओगे, तुमने श्रद्धा का हाथ छोड़ दिया; तुमने संदेह का हाथ पकड़ लिया।
संदेह भी तुम्हारे भीतर, श्रद्धा भी तुम्हारे भीतर, हाथ तुम श्रद्धा का पकड़ना, संदेह का बहुत पकड़कर चल लिए हो। और ध्यान रखना कि श्रद्धा का हाथ भी ऐसा
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