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________________ अंतश्चक्षु खोल हो जाते हो तो तुम शांति की तलाश करते हो। शांति की तलाश अशांत लोग ही करते हैं। जिस दिन तुम शांत हो जाओगे, उस दिन एक नई बात तुम्हें समझ में आएगी और वह यह होगी कि अब तुम अशांति से बहुत भयभीत हो जाओगे। पहले तुम कभी भयभीत न थे। शांत होते से ही तुम पाओगे, अशांति पास में खड़ी है और कभी भी दुर्घटना हो सकती है। फिर तुम अशांत कभी भी हो सकते हो। जितने तुम शांत होने लगोगे, उतने ही तुम घबड़ाओगे कि यह अशांति तो करीब ही खड़ी है। यह कहीं से भी द्वार-दरवाजे खोलकर भीतर आ सकती है। तुम उतने ही भयभीत, कंपित होने लगोगे। यह शांति भी कोई शांति हुई, जिसके पास अशांति खड़ी है! इसलिए फिर एक और शांति है, जहां शांति भी नहीं होती और अशांति भी नहीं होती; उसको ही बुद्ध ने शून्य कहा है। शून्य शब्द बड़ा प्यारा है, बड़ा बहुमूल्य है। इससे बहुमूल्य कोई दूसरा शब्द नहीं है। ब्रह्म भी इससे एक कदम पहले ही छूट जाता है। · शून्य का अर्थ है : द्वंद्व न बचा। प्रेम और घृणा ने एक-दूसरे को नकार दिया। शांति अशांति ने एक-दूसरे को नकार दिया। दोनों की ऊर्जा टकरा गई और एक-दूसरे की ऊर्जा को काट गई। तुम बचे अकेले, जहां कोई द्वंद्व न रहा, निर्द्वद्व दशा रही। उस निद्वंद्व दशा में सत्य का साक्षात्कार है। एकदम से तुम उसे साध भी न सकोगे, यह मैं जानता हूं। पहले तुम्हें श्रद्धा साधनी होगी, अश्रद्धा से छूटना होगा। इतना ही सही कि अश्रद्धा तुमसे थोड़ी दूर हो जाए। अश्रद्धा का पैर जरा दूर-दूर पड़ने लगे, श्रद्धा का पैर करीब पड़ने लगे, तो तुमने पहला कदम उठाया। अब जल्दी ही तुम्हें समझ आएगी कि श्रद्धा भी छोड़नी है। ऐसा ही समझो कि पैर में एक कांटा लगा है, तुम दूसरा कांटा उठा लेते हो इस कांटे को निकालने को। जब दोनों कांटे निकल आते हैं तो तुम क्या करते हो? जिस कांटे से तुमने कांटा निकाला, उसे सम्हालकर रख लेते हो? उसकी पूजा करते हो? उसका गुणगान करते हो? उसके शास्त्र बनाते हो, स्तुति गाते हो? तुम उसे भी उसी कांटे के साथ फेंक देते हो, जो गड़ा था, जो चुभा था। जिसने पीड़ा दी थी, उसी के साथ तुम उस कांटे को भी फेंक देते हो, जिसने पीड़ा छीन ली। तुम दोनों ही कांटों से मुक्त हो जाते हो। ___ अश्रद्धा का कांटा तुम्हारे मन में है, श्रद्धा के कांटे से निकालना है। इससे ज्यादा श्रद्धा का कोई उपयोग नहीं है। संदेह का कांटा तुम्हारे मन में है, श्रद्धा के कांटे से निकालना है: हिंसा का कांटा तम्हारे मन में है, अहिंसा के कांटे से निकालना है: फिर दोनों ही फेंक देने हैं। __कहीं हिंसा का कांटा निकालकर अहिंसक होकर मत बैठ जाना। नहीं तो कांटे की पूजा शुरू हो गई। अब तुम उलझे। एक से क्या छूटे, दूसरे से उलझे। कुएं से 139
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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