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धर्म, जो पंडितों के हाथों में पड़कर महज बौद्धिक और नैतिक हो गया था, भूमि पर घसिटने लगा था, उसे ऊर्जा के पंख उग आए और उसने पुनश्च सूर्य की उड़ान भर ली।
ओशो ने किस विध शब्दों पर संजीवनी छिड़की? उन्होंने शब्दों की खोल तो वही रहने दी, उसे पुराने अर्थ से रीता किया और उसमें नवीन आशय भर दिया। उदाहरण के लिए
बुद्ध कहते हैं, 'सव्वगंथप्पहीनस्स परिलाहो न विज्जति।' 'जिसकी सारी ग्रंथियां क्षीण हो गई हैं उसे कोई दुख नहीं छू सकता।'
ओशो ने अगम से प्रतीत होने वाले इस प्राचीन सूत्र को पलक झपकते अर्वाचीन बना दिया__“यह बुद्धों के मनोविज्ञान का बहुमूल्य शब्द है। पश्चिम में मनोविज्ञान ने अभी-अभी इसके समानांतर शब्द गढ़ा है : कांप्लेक्स। उसका अर्थ भी ग्रंथि है। लेकिन भारत में यह शब्द पांच हजार साल पुराना है। और जो लोग मुक्त हो गए हैं उनको हमने कहा है 'निग्रंथ'। जिनके कांप्लेक्स समाप्त हो गए। ___ "ग्रंथि क्या है ? ग्रंथि का सीधा अर्थ होता है, गांठ। गांठ का मतलब होता है गहरी आदत। इतनी गहरी आदत कि तुम खोलो भी तो गांठ अपने से बंध जाती
___ ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं जो एक ही बात का उदघोष करते हैं-बुद्ध पुरुष शास्त्र का सिर्फ सहारा लेते हैं, हमारी प्यास को जगाने के लिए, ताकि हमारी रुकी हुई खोज शुरू हो जाए। वे हमें प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित भी करते हैं तो इसलिए कि हम समझ लें कि उत्तर देने से उत्तर नहीं मिलता। वह तो प्रश्न जब थककर बिखर जाता है तो उस रिक्त स्थान में शांति का जो फूल खिलता है, वही प्रश्न करने की सार्थकता है। ___ इसीलिए ओशो शांति को परम तृप्ति कहते हैं। मन इतना आकंठ तृप्त हो गया कि प्यास ही न बची; न कहीं आना-जाना बचा। उस उपशांत क्षण में जो अमरित बरसता है वह है शांति। मौन साधा जा सकता है, शांति को हम साध नहीं सकते। वह प्रसाद है, मिलता है तो मिलता है। उसे मांगा नहीं जा सकता।
धम्मपद तो एक बहाना है, ओशो के शब्द अभिव्यक्त होने का। इस चौराहे पर-जहां ओशो और गौतम बुद्ध मिलते हैं, वस्तुतः अतीत और भविष्य मिलते हैं। और दोनों के मिलन से वह वर्तमान क्षण जन्मता है जिसे ओशो मुहूर्त कहते हैं : दो क्षणों के बीच का अंतराल। वह द्वार है समयातीत का। उसकी एक झलक मिल जाए तो मन के सतत संसरण कर रहे चक्र का अतिक्रमण करने की कुंजी मिल गई।
'सनातन' का भी यही अर्थ है। ऐसे ही किसी परागामी ऋषि ने कहा है,