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लुत्फ-ए-मय तुझसे क्या कहूं!
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन जब पीना ही हो तो कर्ज की मत पीना, उधार की मत पीना। और सभी शराबें जो तुम्हारे बाहर से आती हैं, उधार हैं। एक ऐसी शराब भी है, जो तुम्हारे अंतरतम में निचुड़ती है। वही केवल नगद है और उधार नहीं। ऐसे भी अंगूर हैं, जो तुम्हारी अंतरात्मा में लगते हैं। और ऐसी भी शराब है, जो वहीं अंतरात्मा की धूप में पकती है। वहीं अंतरात्मा में ढलती है। तुम्हीं शराब हो वहां और तुम्हीं पीने वाले भी। वहां तुम्हीं मधुशाला हो, तुम्ही मधुपात्र, तुम्हीं मदिरा। तब तो तुमने नगद पी। जिसने बाहर से पी, उसने उधार पी।
और कर्ज की पीकर यह मत सोचना कि कभी रंग आने वाला है। रंग छिन जाएगा। फीके हो जाओगे और। जीवन उदास होगा, क्षीण होगा। जीवन पर धूल जम जाएगी और। रंग न खिलेंगे, फूल न खिलेंगे, सुगंध न निकलेगी। तुम्हारी श्वास में शराब की बू आएगी।
बुद्धों की श्वास में भी खुशबू है किसी और शराब की। बुद्धों के पास ही बैठकर तुम डोलने लगोगे। बिना पीए डोलने लगोगे। बुद्धों के पास से लौटोगे तो पैर डगमगाएंगे। एक मस्ती छा जाएगी। दिनों लग जाएंगे वापस लौटने में अपने पुराने ढंग पर।
सत्संग को पीयो। सत्संग बाहर से आने वाली शराब नहीं।
बुद्ध पुरुष तुम्हें कुछ देते नहीं; जो तुम्हारे भीतर सोया है, उसे जगाते हैं। बुद्ध पुरुष तुम्हें न तो धन देते हैं, न तुम्हें पद देते हैं, न तुम्हें विस्मृति देते हैं। बुद्ध पुरुष तुम्हारे भीतर जो छिपा है, उसे जगाते हैं। वही तुम्हारा धन बन जाता है, वही तुम्हारा पद, और वही तुम्हें एक ऐसी मस्ती से भर जाता है, जो फिर कभी छिनती नहीं।
अभी तो जिसे तुमने अपना जीवन समझा है, वह जीवन की छाया भी नहीं है। वह तो दूर की ध्वनि भी नहीं जीवन की। अभी तो तुमने जिसे जीवन समझा है, वह बड़ी रुग्ण धारणा है। इस जीवन की पीड़ा के बोझ से तुम अपने को भुलाने में लग जाते हो। कोई सिनेमा में जाकर बैठ जाता है, तो घड़ीभर को अपने को भूल जाता है। भूल जाता है तस्वीरों में।
देखो, धोखे कैसे सरल हैं! परदे पर कुछ भी नहीं है। जानते हो तुम, परदे पर कुछ भी नहीं है। जानते हो तुम, जो दिखाई पड़ रहा है धूप-छाया का खेल है, लेकिन भूल जाते हो। भुलाने को ही आए हो, इसलिए भूल जाते हो। चाहते हो कि भूल जाओ। थोड़ी देर को भूल जाए घर, दुकान, बच्चे, पत्नी, चिंताएं, बोझ, दायित्व! थोड़ी देर को तुम निर्भार हो जाओ। थोड़ी देर को राहत मिल जाए। बोझ को उतारकर रख देने का मन है। बोझ उतरता नहीं। थोड़ी देर बाद सारा बोझ वहीं का वहीं होगा। शायद और बढ़ जाएगा। क्योंकि इस संसार में कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। बोझ भी