SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्संग-सौरभ उसने रट लिया है। यह रटन तो मशीन भी कर सकती है। मस्तिष्क मुर्दा है, क्योंकि मस्तिष्क का सारा संबंध अतीत से है। जो बीत गया, जो जान लिया, वही मस्तिष्क में संगृहीत होता है। जो नहीं जाना, जो अभी हुआ नहीं, उसकी मस्तिष्क में कोई छाप नहीं होती। हृदय भविष्य के लिए धड़कता है। मस्तिष्क अतीत के लिए धड़कता है। मस्तिष्क पीछे की तरफ देखता है। हृदय आगे की तरफ-जो होने वाला है। हृदय खुला है भविष्य के लिए। मस्तिष्क तो पीछे देख रहा है। जैसे कार में दर्पण लगा होता है पीछे की तरफ देखने के लिए, वैसा मस्तिष्क है। वह पीछे की तरफ देख रहा है। जो रास्ता बीत चुका, जिससे गुजर चुके, जो धूल अब बैठने के करीब हो गई है, उस धूल का दृश्य बनता रहता है। मस्तिष्क है अतीत का जोड़; इसलिए मुर्दा है। अतीत यानी मृत, जो अब नहीं है; जा चुका, मर चुका। अतीत तो कब्रिस्तान है। मस्तिष्क भी कब्रिस्तान है। वहां लाशें ही लाशें हैं तथ्यों की, जो कभी जीते-धड़कते थे; अब नहीं। तो सदगुरु से तुम दो तरह से जुड़ सकते हो। या तो कलछी की भांति-मुर्दा। कभी वह भी जीती थी किसी वृक्ष में। वर्षा आती थी तो उसके भीतर भी स्पंदन होता था। पक्षी गीत गुनगुनाते थे तो उनका तरन्नुम उसे भी अहसास होता था। धूप आती थी तो धूप की किरणें उसे भी नींद से उठा देती थीं। कभी वह भी जीवित थी किसी वृक्ष में, अब नहीं है। टूट गई वृक्ष से, अलग हो गई वृक्ष से। ___ जब तुम छोटे से बच्चे थे, तब तुम्हारा मस्तिष्क भी जीवित था। तब वह तुम्हारे हृदय के साथ ही छाया की तरह चलता था। वह तुम्हारे बड़े व्यक्तित्व का अंग था। फिर धीरे-धीरे अलग हो गया। फिर धीरे-धीरे उसको शिक्षा दी गई अलग होने की। फिर तुम्हें समझाया गया कि विचार करने में प्रेम और घृणा को बीच में नहीं आने देना चाहिए। संवेदनाओं को बीच में नहीं आने देना चाहिए। भावनाओं को बीच में नहीं आने देना चाहिए। तुम्हें शुद्ध विचारक बनाने की कोशिश की गई। मस्तिष्क को काट दिया गया अलग। मस्तिष्क धीरे-धीरे अपने आप अपने भीनर ही चलायमान हो गया। उसका कोई संबंध तुम्हारे पूरे अस्तित्व से न रहा। वह एक टूटा हुआ खंड हो गया। सोचो, क्या संबंध है तुम्हारे मस्तिष्क का तुमसे? वह चलता जाता है अपने आप ही। तुम सोना चाहते हो, वह चल रहा है। तुम कहते हो, भाई, चुप भी हो जाओ। वह सुनता ही नहीं। वह चला जा रहा है। यह तुम्हारा मस्तिष्क है? ___थोड़ा सोचो, तुम बैठना चाहते हो, तुम्हारे पैर चले जा रहे हैं। तुम उनको अपने पैर कहोगे? तुम कहोगे, हम बैठना चाहते हैं और पैर नहीं सुनते और चलते चले जाते हैं। तो कैसे तुम इन पैरों को अपना कहोगे? तुम रुकना चाहते हो, और जबान बोले चली जाती है। तुम चिल्लाते हो कि मुझे रुकना है और जबान नहीं रुकती। तुम इस जबान को अपना कहोगे? अपना तो
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy