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________________ सत्संग-सौरभ हुआ कि अगर मुझे उन लोगों को तृप्ति देनी है, जिनका संबंध मस्तिष्क का है, तो वे लोग जो हृदय के कारण मेरे करीब आए हैं, कुम्हला जाएंगे। जो लोग हृदय के कारण मेरे पास आए हैं, और जिन्होंने हृदय दांव पर लगाया है, अगर उनके लिए मुझे बरसना है, तो मस्तिष्क के कारण जो लोग मेरे पास आए हैं, वे दूर हट जाएंगे। न केवल दूर हट जाएंगे, नाराज भी हो जाएंगे। इन दोनों को एक साथ तृप्त करना असंभव है। बहुत मैंने चेष्टा की कि दोनों के लिए सहारा मिलता रहे। शायद जो मस्तिष्क से आज भरा है, कल झुक जाए। पर लगा, नहीं, असंभव है। कलछी दाल में कितने ही समय रहे, रस न ले सकेगी। फिर मुझे उनकी फिक्र ही छोड़ देनी पड़ी। आज भी उनके लिए दया है मेरे मन में। लेकिन उनको खुद ही अपने पर दया नहीं आती, तो मेरी दया क्या कर सकती है? कितने कांटों की बददुआ ली है चंद कलियों की जिंदगी के लिए नाराज हैं वे, विरोध में हैं। हजार तरह की आलोचना और निंदा उनके मन में है। उनकी नाराजगी मैं समझ सकता हूं। लेकिन यह सौदा करने जैसा लगा। कितने कांटों की बददुआ ली है चंद कलियों की जिंदगी के लिए __ यह करने जैसा लगा। एक कली भी खिल जाए और हजार कांटे गालियां देते रहें, क्या फर्क पड़ता है? कोई हर्ज नहीं है। इतना तो तय है कि कांटे न खिलते। हां, उन पर ज्यादा ध्यान देने से हो सकता था, यह कली न खिल पाती। ___ तो अब तो मेरा संबंध सिर्फ उनसे है, जो हृदय को दांव पर लगाने की हिम्मत रखते हैं, जुआरी हैं। अब दुकानदारों से संबंध नहीं है। इसलिए मैंने सब ऐसे उपाय कर लिए हैं कि उस तरह के लोगों को आने की सुविधा ही न रह जाए। क्योंकि आते हैं, तो अकारण समय व्यर्थ होता है; अकारण शक्ति, अकारण समय। और उन्हें कुछ होने वाला नहीं है; जब तक कि वे सीखने ही न आएंगे। • अब विद्यार्थियों में मेरी उत्सुकता नहीं है, केवल शिष्यों में है। और फर्क यही है, कि विद्यार्थी ज्ञान लेने आता है, शिष्य जीवन लेने। विद्यार्थी, कुछ जानकारी बढ़ जाए, तृप्त। थोड़ी उसकी संपदा समझ की बढ़ जाए, काफी है। शिष्य अपने को मिटाने आता है। शिष्य पुनर्जीवन के लिए आता है। शिष्य मरने और जीने की तैयारी लेकर आता है। शिष्य चुनौती स्वीकार करता है सदगुरु की। शिष्य सत्संग के लिए आता है, विद्यार्थी शिक्षित होने के लिए। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, यदि हम संन्यास न लें, तो क्या आपका प्रसाद हमें न मिलेगा? मैं उनसे कहता हूं, मेरा तो प्रसाद मिलेगा, लेकिन तुम न ले पाओगे। सवाल मेरे देने का नहीं है, सवाल तुम्हारे लेने का है। संन्यास तो केवल एक भाव मुद्रा है, एक गेस्चर, कि तुम तैयार हो, कि तुम 59
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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