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________________ सत्संग-सौरभ चाहिए कि तुम उसका स्वागत करो कि आओ मेरे भीतर, पधारो । तुम्हारी तरफ से इतना आमंत्रण — और ऐसी रोशनी जो तुमने कभी नहीं जानी, अचानक तुम्हारे भीतर उतरने लगती है। ठीक होगा कहना, उतरती नहीं, तुम्हारे भीतर जगती है। तुम्हारे भीतर सोई पड़ी थी । समान समान से आंदोलित हो जाता है । समान समान से आकर्षित हो जाता है। समान् की समान पर कशिश है । तो जब किसी व्यक्ति के भीतर रोशनी का सागर होता है, तो तुम्हारे भीतर का सोया सागर भी करवट लेने लगता है। दूसरे की वासना तुम्हारी वासनाओं को जगा देती है। दूसरे की कामना तुम्हारी कामनाओं में अंकुरण कर देती है। दूसरे का कामना - मुक्त जीवन, तुम्हारे भीतर भी नए आयाम की शुरुआत होती है। दूसरे का करुणा से भरा हुआ हृदय तुम्हारे भीतर भी क्षणभर को उन ऊंचाइयों पर तुम्हें उठा देता है, जिन पर तुम अभी गए नहीं। जैसे छोटा बच्चा अपने बाप के कंधों पर बैठकर बाप से भी ऊंचा हो जाता है। जहां तक बाप को भी नहीं दिखाई पड़ता, वहां तक छोटे बच्चे को दिखाई पड़ने लगता है— बाप के कंधों पर । सत्संग का अर्थ है : किन्हीं के चरणों में इतना झुक जाना, किन्हीं के प्रति इतना समर्पित हो जाना, कि तुम उन कंधों पर बैठने के हकदार बन सको । गुरु तुम्हें कंधों पर उठा लेता है। लेकिन उस उठाने के पहले जरूरी है कि तुम छोटे बच्चे की तरह झुक जाओ। तुम छोटे बच्चे की तरह निर्दोष हो जाओ। सत्संग की बड़ी कीमिया है, अल्केमी है। उसका अपना पूरा शास्त्र है। बाहर से खड़ा कोई देखता रहे तो उसे पता भी न चलेगा। यह कोई जोर-जोर से होने वाली वार्ता नहीं है। यह तो दो दिलों के बीच होने वाली गुफ्तगू है। यह तो दो दिलों के बीच होने वाली फुसफुसाहट है । कानों-कान इसकी किसी को खबर भी नहीं होती। बात कही भी नहीं जाती और पहुंच जाती है। कुछ किया भी नहीं जाता और क्रांति घट जाती है। बस, इतना ही चाहिए कि तुम आंख खोलकर देखने को तैयार हो । सदगुरु यानी सत्संग । सदगुरु का कुछ और उपयोग नहीं है । एक अर्थ में सदगुरु बिलकुल ही गैर-उपयोगी है। तुम अगर संसार में उसका उपयोग खोजने जाओ तो कुछ भी उपयोग नहीं है। तुम उसे बेचने जाओ संसार में तो कुछ मूल्य न पा सकोगे। बाजार में उसकी कोई कीमत नहीं। क्योंकि सदगुरु कोई कमोडिटी, कोई बाजार की दुकान पर बिकने वाली चीज नहीं है। वस्तुतः उपयोगिता के जगत में उसका कोई भी मूल्य नहीं । सदगुरु का मूल्य निर- उपयोगिता के जगत में है । या उस जगत में है, जहां हम उपयोगिता के भी पार उठते हैं। अतिक्रमण होता है फूलों के जगत में, सुगंधों के जगत में। जहां होना ही आनंद है। जहां हम किसी और क्षण के लिए नहीं जीते। जहां जीवन एक साधन नहीं है, परम साध्य है। जहां प्रतिक्षण मोक्ष है, मुक्ति है। सदगुरु के पास होना सदगुरु का उपयोग है। 51
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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