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________________ एस धम्मो सनंतनो आज सत्संग की कुछ बात करें। इन सूत्रों में सत्संग की ही आधारशिला है। -सत्संग से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ और नहीं है। अंधे को जैसे आंख मिल जाए, या गूंगे को जबान; या मुर्दा जैसे जग जाए और जीवित हो जाए, ऐसा सत्संग है। सत्संग का अर्थ है : तुम्हें पता नहीं है; किसी ऐसे का साथ मिल जाए जिसे पता है, तो जैसे तुम्हें ही पता हो गया; तो जैसे तुम्हारे हाथ में अंधेरे में मशाल आ गई। ___सत्संग का अर्थ है : जैसे तुम अंधकार में हो और अचानक बिजली कौंध जाए। एक रोशनी चारों तरफ फैल जाए। फिर चाहे अंधेरा घिर जाए, लेकिन तुम दुबारा वही न हो सकोगे। तुम फिर अंधेरे में न हो सकोगे। अब तुम जानते हो कि रास्ता है। अब तुम जानते हो कि मंजिल है। सत्संग में न केवल तुम्हें रास्ते का पता चलता है, मंजिल का पता चलता है। तुम्हें उस आदमी का भी स्वाद मिल जाता है, जो मंजिल पर पहुंच गया है। तुम्हें अपने भविष्य की झलक मिलती है। तुम जो हो सकते हो, उसका सपना जगता है। तुम जो नहीं हो पा रहे हो, उसकी पीड़ा पैदा होती है। सत्संग परम सुख भी है, परम पीड़ा भी। पीड़ा-कि गंवाया बहुत। पीड़ा—कि अब तक व्यर्थ ही भटके। पीड़ा-कि अब तक चले तो बहुत, लेकिन पैर मार्ग पर न पड़े। पीड़ा—कि जन्मों-जन्मों में कितनी यात्रा की, और इंचभर मंजिल से दूरी कम न हुई। और सुख, एक महासुख, कि भला हम न पहुंचे हों, कोई और हम जैसा पहुंच गया। भला हम न पहुंचे हों, लेकिन पहुंचना संभव है। भला हम न पहुंचे हों, लेकिन मनुष्य पहुंच सकता है, यह भरोसा। __पीड़ा बड़ी है, लेकिन सत्संग का सुख उससे भी बड़ा है। पीड़ा के उन्हीं कांटों के बीच सत्संग का गुलाब खिलता है, फूल खिलता है। अपने लिए तुम रोते हो, लेकिन अब किसी और के लिए, और किसी और में अपने भविष्य की झलक पाकर अपने लिए भी नाचते हो। सत्संग कुछ ऐसी बात है, जिसका पूरब को पता है, पश्चिम को पता ही नहीं। वह आयाम पश्चिम से अपरिचित ही रह गया। और आधुनिक मनुष्य, चाहे पूरब में हो चाहे पश्चिम में, करीब-करीब पश्चिम का है, पाश्चात्य है। इसलिए आधुनिक मनुष्य को भी सत्संग का राज चूका जाता है। पूरब में हमने एक अनूठी बात जानी, कि कुछ ऐसे राज हैं कि अगर तुम जानने वाले आदमी के पास बैठ भी जाओ तो तुम्हें रूपांतरित कर देते हैं। सदगुरु केटालिटिक है। कुछ करता नहीं और तुम्हारे भीतर कुछ हो जाता है। उसकी मौजूदगी काफी है। उसकी मौजूदगी करती है। तुममें भर इतना साहस चाहिए कि तुम अपने द्वार-दरवाजे थोड़े उसके लिए खोलो। तुममें इतना साहस चाहिए कि तुम अपनी आंख को मींचकर न बैठे रहो। आंख थोड़ी खोलो। तुममें इतना साहस 50
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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