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एस धम्मो सनंतनो
घृणा बिलकुल ही शून्य हो जाती है, तो प्रेम कैसा! इधर घृणा गई, प्रेम का भाव भी गया। इसका यह मतलब नहीं है कि प्रेम नहीं बचता। प्रेम ही प्रेम बचता है, लेकिन बोध कैसे हो?
जब तक भीतर मूर्छा है, तब तक चेतना भी पता चलती है। जब मूर्छा बिलकुल चली जाती है तो चेतना का भी पता नहीं चलता। पता किसको चले? कैसे चले? पता चलने के लिए विपरीत की मौजूदगी चाहिए।
तुम बाहर हो जेलखाने के; तुम्हें पता चलता है जेल के बाहर होने का? कुछ पता नहीं चलता। एक दफा जेल होकर आओ। तब जेल से छूटोगे, राह पर आकर खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें पता चलेगा स्वतंत्रता का। राह से हजारों लोग निकल रहे हैं, उनमें से किसी को पता नहीं चलता। तुम अगर उनसे कहोगे, नाचो! मुक्त हो तुम! जेल के बाहर हो। वे कहेंगे, पागल हो गए? दफ्तर जा रहे हैं। अपने घर जा रहे हैं। नाचें किसलिए? तुमको लगता है, नाचें। तुम जेल में थे। जंजीरों ने तुम्हें
स्वतंत्रता का बोध दिया। लेकिन कितनी देर यह याद रहेगी? एक-आध दिन, दो - दिन, चार दिन, दस दिन। जैसे-जैसे स्वतंत्रता स्वीकार हो जाएगी, वैसे-वैसे बोध खो जाएगा।
सिर का पता चलता है, जब सिर में दर्द होता है। जब सिर में दर्द नहीं होता, सिर का पता नहीं चलता। जिसको सिर में दर्द कभी हुआ ही नहीं है, उसे सिर का पता ही नहीं है।
शांति का पता चलता है, क्योंकि अशांति है। विश्राम का पता चलता है, क्योंकि थकान है। प्रकाश का पता चलता है, क्योंकि अंधकार है। जीवन का पता चलता है, क्योंकि मौत है।
जिन्होंने अमृत जीवन को जाना, उनको धीरे-धीरे जीवन का पता भी नहीं चलता। जहां मृत्यु नहीं है, वहां जीवन का पता कैसे चले?
होने ही को है ऐ दिल तकमील मुहब्बत की एहसासे-मुहब्बत भी मिटता नजर आता है
आज इतना ही।
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