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बुद्धि, बुद्धिवाद और बुद्ध हो, मंजिल हो? नारद ने जैसे कहा है, भक्ति फलरूपा है, क्या झुकना अपने आप में साध्यरूप नहीं हो सकता? किसी के सामने...।
बुद्ध कहते हैं, कोई सामने होगा तो तुम पूरे झुक ही कैसे पाओगे? अड़चन पड़ेगी। किसी की मौजूदगी बाधा डालेगी। तुम पूरे मुक्त न हो पाओगे। दूसरे की मौजूदगी सीमा बनाएगी। कटघरा खड़ा करेगी। दूसरा देखता है। बुद्ध ने कहा, अगर परमात्मा है तो मनुष्य कभी स्वतंत्र न हो पाएगा। मोक्ष कैसे होगा? दूसरा बना ही रहेगा...बना ही रहेगा। दूसरा देखता ही रहेगा। उसकी आंखें, टकटकी तुम पर लगी ही रहेगी। तुम कभी खुलकर सहज न हो पाओगे।
बुद्ध ने एक धर्म दिया, जो परमात्मा से मुक्त है। बुद्ध ने एक मोक्ष दिया, जिसमें परमात्मा की कोई आवश्यकता नहीं। इतनी ऊंचाई पर कोई धर्म कभी नहीं पहुंचा। थोड़ा सोचो तो! धर्म की इतनी ऊंचाई, कि परमात्मा भी अनावश्यक हो जाए। प्रार्थना की इतनी बुलंदी कि परमात्मा भी आवश्यक न रह जाए। झुकना अपने आप में इतना परिपूर्ण आनंद है कि इसे दूसरे के सहारे की जरूरत नहीं। सहज-स्फूर्त! आत्म-भाव!
लेकिन अगर यहीं तक बात होती, तो इतनी बात तो महावीर ने भी कर दी थी। बुद्ध की कुछ विशेषता न थी। और महावीर बद्ध से कुछ वर्ष पहले, उम्र में बुजुर्ग थे। वे कोई तीस-चालीस साल बड़े थे। यह बात तो महावीर ने कह दी थी। और महावीर ने कोई नई बात न कही थी। जैन परंपरा में महावीर के पहले तेईस तीर्थंकर
और हो चुके थे। बड़ी पुरानी परंपरा थी ईश्वर-रहित धर्म की भी। छोटी धारा थी; जैन कभी बड़े विस्तार रूप में नहीं फैल पाए-फैल नहीं सकते। उनका भी ठीक समय नहीं आया। उनकी भी बात बड़ी समय के पहले हो गई। क्षीण धारा रही, लेकिन थी। यह कोई नई बात न थी।
अगर बुद्ध ने इतना ही कहा होता तो बुद्ध भी जैन धारा के एक अंग हो जाते। लेकिन बुद्ध ने बुलंदी और भी ऊंची ली। बुद्ध ने पंख और भी बड़े आकाश की तरफ उठाए। और बुद्ध ने ऐसी बात कही, जिसको समझना तो दूर, कोई कहेगा इस पर भी भरोसा नहीं आता।
बुद्ध ने कहा, आत्मा भी नहीं है। परमात्मा तो है ही नहीं। जिसकी तुम प्रार्थना करो वह तो है ही नहीं, जो प्रार्थना करता है, वह भी नहीं है; सिर्फ प्रार्थना ही है। जिससे तुम प्रेम करो वह तो है ही नहीं, जो प्रेम करता है वह भी नहीं है। प्रेम-पात्र भी नहीं है, प्रेमी भी नहीं है। ध्यान का विषय भी नहीं है और ध्यानी भी नहीं है। बस, ध्यान है। दोनों किनारे नहीं हैं। द्वैत बिलकुल नहीं है। द्वंद्व बिलकुल नहीं है। बुद्ध ने कहा, शून्य है। न परमात्मा है, न प्रार्थी है। परमात्मा के कारण बाधा पड़ती है। और तुम परमात्मा को तब तक न छोड़ पाओगे, जब तक तुम हो। तुम्हारे कारण भी बाधा पड़ती है।
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