________________
लाभ-पथ नहीं, निर्वाण-पथ
गई
लौटकर आना। उसका ज्ञान ही उसके लिए अहितकर हो गया।
'झूठा बड़प्पन मिले, भिक्षुओं में अगुआ होऊं, मठों का अधिपति बनूं, गृहस्थ परिवारों में पूजा जाऊं, गृही और भिक्खु दोनों ही मेरे किए हुए को प्रमाण मानें, और कार्याकार्य में सब मेरे ही अधीन चलें, इस प्रकार मूढ़ का संकल्प इच्छा और अभिमान को बढ़ाता है।'
भिक्षुओं से बुद्ध बोले हैं ये वचन। बुद्ध ने धीरे-धीरे भिक्षुओं से ही बात की। जैसा कि मैं चाहता हूं कि धीरे-धीरे संन्यासियों से ही बात करूं। क्योंकि जो बदलने को तैयार हो, उससे ही बात करने का कुछ मजा है। जो सिर्फ सुनने को चला आया हो, कुतूहल से चला आया हो, या बहुत-बहुत जिज्ञासा से चला आया हो, उससे बात करना समय का गंवाना है। और समय का गंवाना ही नहीं, खतरा भी है। क्योंकि वह मूढ़ कहीं इन बातों को पकड़कर, याददाश्त में भरकर यह न समझ बैठे कि जान गया। अन्यथा लाभ तो कुछ भी न हुआ, हानि बड़ी हो गई।
बुद्ध ने सिर्फ भिक्षुओं से बात की है। भिक्षु का अर्थ है, जिसने जीवन को दांव पर लगाने की तैयारी दिखाई है; जो जिज्ञासा से नहीं, मुमुक्षा से आया है; जो कहता है, बदलने को तैयार हूं। देख लिए जीवन के सपने; तोड़ने को तैयार हूं। एक बात पहचान में आ गई कि जैसा मैं हूं, गलत हूं। ठीक होने के लिए जो भी करना हो, वह करने की मेरी तैयारी है। - दुनिया हंसे, कोई बात नहीं। दुनिया जिसे लाभ कहती है, हाथ से छूट जाए, कोई बात नहीं। दुनिया जिसे संपदा और सफलता कहती है, देख लिया। न वहां संपदा है, न वहां सफलता है। हाथ खाली लेकर आया हूं। अब जहां संपदा हो, उसकी तलाश पर जाने को तैयार हूं। मार्ग कठिन हो, हो। यात्रा लंबी हो, हो। ऐसे यात्रियों का दल-उनसे ही कुछ बात करने का मजा है। कुछ बात कहने की बात है। __'झूठा बड़प्पन मिले...।'
पर उनमें भी लोग ऐसे आ जाते हैं। भिक्षु भी हो जाते हैं, संन्यस्त भी हो जाते हैं, और फिर भी पुरानी आदतों से बाज नहीं आते। गलत कारण से भी तुम संन्यासी हो सकते हो। अगर यह भी अहंकार ही हो, अगर तुम इसलिए संन्यस्त हो जाओ कि संन्यासी होने से भी अहंकार की तृप्ति होती है, कि मैं कोई साधारण आदमी न रहा। मैं कोई साधारण गृहस्थ नहीं हूं, घर-गृहस्थी वाला नहीं हूं, संन्यासी हूं। अगर यह भी तुम्हारे भीतर अभिमान को जन्माता हो तो चूक हो गई। अहंकार ही घर है;
और अहंकार में जो रहता है, वही गृहस्थ है। अहंकार के जो पार हुआ वही संन्यस्त है। फिर वह चाहे घर में भी रहे तो कोई फर्क नहीं पड़ता। __'झूठा बड़प्पन मिले, भिक्षुओं में अगुआ होऊ...।'
संन्यासी होकर भी प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा! संन्यासी होकर भी दौड़ वही कि आगे खड़ा हो जाऊं, दूसरों को पीछे कर दूं। वहां भी अहंकार और ईर्ष्या-चूक हो
165