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________________ लाभ-पथ नहीं, निर्वाण-पथ लंगड़ी हो जाती है। मूढ़ता चलती है सत्य के ज्ञान के उधार पैरों से। उसके पास अपने कोई पैर नहीं। इसलिए मूढ़ आदमी सदा चेष्टा में लगा रहता है सिद्ध करने की, कि मैं मूढ़ नहीं हूं। उस चेष्टा में वह अपनी बीमारी को बचाता है। ___ थोड़ा सोचो, तुम बीमार हो और अगर तुम यह चेष्टा करते रहो कि मैं बीमार नहीं हूं और तुम चिकित्सक को यह कहो कि बीमार हूं ही नहीं, तो फिर तुम्हारी चिकित्सा न हो सकेगी। फिर इलाज खोजा न जा सकेगा। फिर तो तुमने अपनी बीमारी को ही अपनी आत्मा बना लिया। पहली तो बात है : निदान; ठीक से पहचान कि बीमारी बीमारी है। यह स्वीकार करने में अहंकार को बड़ी पीड़ा होती है कि मैं मूढ़ हूं। किसी को मूढ़ कहकर देखो! कोई धन्यवाद न देगा, गालियां बरसाने लगेगा। हम सुरक्षा कर रहे हैं उसकी, जो हमारी मौत है। हम उसे हजार-हजार उपायों से बचा रहे हैं, जो. गले में फांसी है। मूढ़ बड़े तर्क करता है अपने को बचाने के लिए। मूढ़ यह कह सकता है कि ईश्वर नहीं है और तर्क खोज सकता है। ज्यादा से ज्यादा इतना ही कहो कि मुझे पता नहीं है। समझदारी की पहली यात्रा शुरू हो गई। इतना ही कहो, मुझे पता नहीं है। और इतना ही पता हो जाए तो काफी हुआ। ईश्वर नहीं है, इसे तुम कैसे कहोगे? किस आधार पर कहोगे? लेकिन मूढ़ कहता है, ईश्वर नहीं है। असल में वह ईश्वर की चुनौती से डरा हुआ है। अगर ईश्वर है तो खोजना पड़ेगा। अगर ईश्वर है तो मुझे मिटना पड़ेगा। अगर ईश्वर है तो मैं न हो सकूँगा। फ्रेडरिक नीत्शे ने अपने एक पत्र में लिखा है कि या तो ईश्वर हो सकता है, या मैं हो सकता हूं; तो यही उचित है कि ईश्वर न हो। मैं तो हूं। इतना तो साफ है, पक्का है, मैं हूं। ईश्वर नहीं होगा। एक म्यान में दो तलवारें न रह सकेंगी, ऐसा लिखा है फ्रेडरिक नीत्शे ने। मैं और ईश्वर एक साथ कैसे हो सकेंगे इस अस्तित्व में? अगर ईश्वर होगा तो मैं मिटा। . इसलिए मूढ़ अपने अहंकार को बचाने के लिए ईश्वर नहीं है, ऐसा कहेगा। कहना था इतना ही, मुझे पता नहीं है। इतना अनंत विस्तार है, कहां छिपा हो ईश्वर, मुझे पता नहीं। ___एक तरह के मूढ़ कहेंगे कि ईश्वर नहीं है। दूसरे तरह के मूढ़ कहेंगे कि ईश्वर है। उन्हें भी पता नहीं है। जितनी मूढ़ता इस बात में है कि ईश्वर नहीं है, उतनी ही मूढ़ता दूसरी बात में भी है कि ईश्वर है। तुम्हें पता कहां? काश! इतना ही तुम्हें पता हो जाता, तो फिर तो कुछ और करने को न बचा था। पता नहीं है और तुम कहते हो, ईश्वर है! यह भी विपरीत रास्ते से-जो नहीं है तुम्हारे पास, जो ज्ञान तुम्हारे पास नहीं है, उसको मान लेने की तरकीब हुई। ___ एक नास्तिक का ढंग हुआ मूढ़ता को बचाने का; एक आस्तिक का ढंग हुआ 153
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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