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________________ मौन में खिले मुखरता तो हो नहीं सकता, फिर भी कोशिश करो। उन्होंने कोशिश की। पंद्रह विद्यार्थियों में केवल तीन विद्यार्थी उसे हल कर पाए। उसी क्लास के दूसरे पंद्रह विद्यार्थियों को दूसरे कमरे में कहा गया — वही सवाल—एकदम सरल है । इतना सरल है कि तुम में से अगर कोई इसे हल न कर पाए तो बड़े आश्चर्य की बात होगी। तुमसे नीची कक्षाओं के विद्यार्थियों ने भी इसे हल कर लिया है। और आश्चर्य की बात, बारह हल कर पाए, तीन भर चूक गए ! क्या हुआ ? तुम्हारा भरोसा उधार है, दूसरे तुम्हें देते हैं । कोई तुमसे कह देता है बुद्धिमान, तो तुम बुद्धिमान हो जाते हो; कोई तुमसे कह देता है बुद्ध, तुम बुद्ध हो जाते हो । और लोग अगर दोहराए चले जाएं तो तुम मानने लगते हो उनकी बात । लोगों की बातों में सम्मोहन है। और जिसे आत्मज्ञान की तरफ कदम रखना है, उसे यह सम्मोहन तोड़ देना होगा । उसे अपने पर भरोसा करना पड़ेगा सीधा-सीधा । दूसरे का माध्यम हटाओ बीच से। दूसरे को अपना पता नहीं है, तुम्हारा पता क्या होगा? वह खुद तुम पर निर्भर है कि तुम उसको कहो कि आप बड़े बुद्धिमान, कि आप बड़े सुंदर, कि आप जैसा सीधा-साधा और सरल मनुष्य नहीं देखा। वह तुम्हारे पास भिक्षा मांगने आया था । और इस तरह पारस्परिक भिक्षा का लेन-देन चलता है। मैंने सुना है, एक मोहल्ले में दो ज्योतिषी रहते थे। जब वे सुबह निकलते थे, मिल जाते तो एक-दूसरे को हाथ दिखा देते कि आज दिन कैसा रहेगा ! एक-दूसरे की फीस भी चुका देते चार-चार आने, कोई हर्जा भी न होता, जानकारी भी हो जाती । अब ऐसा ज्योतिषी, जो अपना ज्योतिष पूछ रहा है...! एक बार एक बड़े ज्योतिषी को मेरे पास लाया गया। उनकी फीस एक हजार एक रुपए। उन्होंने कहा कि एक हजार एक रुपया मेरी फीस है । मैंने कहा, कोई हर्ज नहीं, हाथ तो देखें। हाथ जब देख लिया, फिर बड़ी देर हो गई और बातें चलती रहीं, दो-चार बार उन्होंने इशारा किया कि वह एक हजार एक रुपया ! मैं बात टाल गया। फिर-फिर उन्होंने याद दिलाई। मैंने कहा कि तुम्हें यह भी पता नहीं चलता कि मुझसे ये रुपए मिलने वाले नहीं हैं ? तुम अपना हाथ तो घर से देखकर निकले होते। तुम मेरा भविष्य बताते हो, तुम्हें अपना आज भी पता नहीं है। पर पारस्परिक चलता है । लेन-देन है। हम तुम्हारी प्रशंसा कर देते हैं, तुम हमारी प्रशंसा कर देते हो, दोनों घर प्रसन्न लौट जाते हैं। डूबो मौन में ! दूसरे को जितना भूल सको उतना अच्छा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम भाग जाओ जिंदगी से। मैं यह कह रहा हूं कि तुम जिंदगी में सच्चे हो जाओ। धीरे-धीरे तुम में एक बल आएगा, वह तुम्हारे भीतर से आएगा । और तब तुम पाओगे कि बोलने में भी तुम्हारी प्रामाणिकता रह जाती है, मिटती नहीं । वस्तुतः 127
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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