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________________ एस धम्मो सनंतनो जाएं, अगर लोग थोड़े चुप रहें । झगड़े-फसाद कम हो जाएं, उपद्रव कम हो जाएं, अदालतें कम हो जाएं, अगर लोग थोड़े चुप रहें । मी का बहुत सा उपद्रव बोलने के कारण है; बोले कि फंसे। बोलने से एक सिलसिला शुरू होता है। सारी बात मौन सीखने की है। मौन प्रामाणिक होगा। क्योंकि मौन में दूसरे की मौजूदगी नहीं है; झूठे होने की कोई जरूरत नहीं है। बोलने में झूठ बोला जाता है। मौन में झूठ का क्या सवाल है ? मौन तो सच होगा ही । जब चुप हो, तो दूसरे से मुक्त हो; जब बोलते हो, दूसरे की परिधि में आ गए। जैसे ही बोले कि समाज शुरू हुआ। अकेले हो, चुप हो, तो बस आत्मा है। पशु हैं, पक्षी हैं, पौधे हैं— उनका कोई समाज नहीं। मनुष्य का समाज है, क्योंकि मनुष्य बोलता है । भाषा से समाज का जन्म हुआ। गूंगों का क्या समाज होगा? और अगर होगा तो वह भी किसी ढंग के बोलने पर निर्भर होगा, इशारों पर निर्भर होगा । जब तुम नहीं बोलते, तब तुम एकांत में अकेले हो गए। भरे बाजार में, भीड़ में खड़े हो, नहीं बोलते-हिमालय के शिखर पर पहुंच गए। जिसने मौन की कला जान ली वह भीड़ में ही अकेले होने की कला जान लेता है। वह अपने में डुबकी लगाने लगता है। वहां प्रामाणिकता का राज्य है। वहां सत्य का सौंदर्य है। झूठ होने का कोई कारण नहीं है। वहां बस तुम हो । जैसे तुम अपने स्नानगृह में प्रामाणिक हो जाते हो, वस्त्र अलग कर देते हो — वहां तुम हो। लेकिन अगर तुम्हें पता चल जाए कि कोई चाबी के छेद से झांक रहा है, तत्क्षण तुम झूठ हो जाते हो; तत्क्षण तौलिया लपेट लेते हो; तत्क्षण विचारने लगते हो : कौन है ? किसी ने देखा ? क्षणभर पहले गुनगुनाते थे गीत, कोई फिक्र न थी, क्योंकि कोई सुनने वाला न था । स्नानगृह में सभी गायक हो जाते हैं। ऐसे दूसरों के सामने कहो, गाओ, तो झिझकते हैं, शरमाते हैं। दूसरे की मौजूदगी शर्म पैदा करती है, झिझक पैदा करती है। क्योंकि दूसरा क्या सोचेगा, यह चिंता पैदा होती है । कहीं मैं दूसरे को राजी न कर पाया, गाया और कहीं दूसरे ने हंसा, मखौल हुई, मजाक हुआ ... ! तुमने खयाल किया, स्नानगृह में दर्पण के सामने तुम फिर से छोटे बच्चे हो जाते हो, मुंह बिचकाते हो, अपने पर ही हंसते भी हो। खो गए बीच के दिन, फिर तुम छोटे बच्चे हो गए, लौट आई एक प्रामाणिकता, एक सच्चाई | बाहर निकलते ही तुम दूसरे आदमी हो जाते हो । घर में तुम एक होते हो, बाजार में तुम और भी दूसरे हो जाते हो। 1 जितनी दूसरों की और परायों की मौजूदगी बढ़ती चली जाती है, उतना ही जाल बड़ा होता जाता है, उतनी ही उलझन होती जाती है : हजारों आंखों को राजी करना 122
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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