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________________ पहला प्रश्न : पहला मौन में खिले मुखरता हर बार बोलने के बाद ऐसा अनुभव होता है कि मैंने बेईमानी की; चुप रहने पर ही अपने साथ ईमानदारी, पूरी ईमानदारी करती मालूम होती हूं। ऐसा क्यों है ? शुभ लक्षण है, चिंता की कोई बात नहीं है। I बोलते ही दूसरा महत्वपूर्ण हो जाता है । बोलते ही मन वही बोलने लगता हैं जो दूसरे को प्रीतिकर हो । बोलते ही मन शिष्टाचार, सभ्यता की सीमा में आ जाता है। बोलते ही हम स्वयं नहीं रह जाते, दूसरे पर दृष्टि अटक जाती है। इसलिए बोलना और ईमानदार रहना बड़ा कठिन है। बोलना और प्रामाणिक रहना बड़ा कठिन है। अच्छा है, इतनी समझ आनी शुरू हुई। शुभ लक्षण है। ज्यादा से ज्यादा चुप रहना उचित हैं। पहली कला चुप होने की सीखनी पड़ेगी। उतना ही बोलो जितना अत्यंत अनिवार्य हो। जिसके बिना चल जाता हो उसे छोड़ दो, उसे मत बोलो। और तुम अचानक पाओगे कि नब्बे प्रतिशत से ज्यादा तो व्यर्थ का है, न बोलते तो कुछ हर्जन था, बोल के ही हर्ज हुआ। बड़े विचारक पैस्कल ने कहा है कि दुनिया की नब्बे प्रतिशत मुसीबतें कम हो 121
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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