SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एस धम्मो सनंतनो भूल कर ली जो जिंदगी में कर ली, मिर्चे ज्यादा डाल लीं। ___ अपने ही डाले मिर्गों से जले जाते हो, अपने ही डाले मिर्गों से नर्क पाते हो, मगर डाले चले जाते हो। ___ कवि ऐसा व्यक्ति है, तुम मिर्च डाल रहे हो अपने सपनों में, वह थोड़े खीर, हलवा-उस तरह के सपने देख रहा है। तुमसे बेहतर हैं उसके सपने। वह तुमसे ज्यादा तरल है और दूर की कौड़ी लाने में कुशल है। कभी-कभी उसके सपनों में बड़ी दूर के प्रतिबिंब बन जाते हैं। जैसे चांद उगा हो आकाश में और झील में उसका प्रतिबिंब बनता है। वह प्रतिबिंब असली नहीं है। एक कंकड़ फेंक दो झील में, प्रतिबिंब खंड-खंड हो जाएगा। एक छोटा सा कंकड़ तोड़ देगा उस चांद को। फिर किसी ने चांद देखा-ऋषि और कवि का यही फर्क है। ऋषि चांद देखता है, कवि चांद का प्रतिबिंब देखता है। ऋषि जब गाता है तो वह चांद की प्रशंसा में गाता है। कवि जब गाता है तो वह चांद के प्रतिबिंब की प्रशंसा में गाता है। लेकिन यह हो सकता है कि ऋषि की बात तुम्हें बेबूझ हो जाए। क्योंकि तुमने सत्य कभी देखा नहीं। लेकिन कवि की बात तुम्हें थोड़ी-थोड़ी समझ में आती है, क्योंकि सपने तुमने भी देखे हैं। उतने अच्छे न देखे होंगे। तुम उतने कुशल नहीं हो। तुम्हारे सपने साधारण हैं। तुम्हारे सपनों में सिसकारा निकल जाता है। लेकिन फिर भी सपने तुमने देखे हैं। सपनों की भाषा तुम जानते हो। इसलिए कवि की बात तुम्हें जल्दी समझ में आ जाती है, ऋषि की बात जरा मुश्किल है। ___ कवि तुम्हारे और ऋषि के बीच में खड़ा है। तुम जैसा है, लेकिन बिलकुल तुम जैसा नहीं, तुमसे ज्यादा सृजनात्मक है। तुमसे ज्यादा कल्पना का धनी है। उसकी कल्पना ज्यादा प्रखर है। तुम भी एक डबरे हो पानी के, वह भी पानी का डबरा है। तुम पानी के ऐसे डबरे हो, इतनी मिट्टी घुली है कि प्रतिबिंब भी नहीं बनता। उसके पानी के डबरे की मिट्टी नीचे बैठ गई है। प्रतिबिंब बनता है, साफ-सुथरा बनता है। इतना ही नहीं, वह प्रतिबिंब को पकड़ लेता है चित्रों में, कविताओं में, मूर्तियों में, ढाल देता है बाहर। ___ इसलिए तो इतना प्रभाव है काव्य का, चित्रों का, मूर्तियों का। जो तुमसे नहीं हो पाता, वह तुम्हारे लिए कर देता है। जो तुम नहीं गा पाते, वह गा देता है। तुम गाना चाहते थे, लेकिन तुम उतने अच्छे शब्द न खोज पाए। जब तुम किसी कवि को सुनते हो, तुम्हें ऐसा लगता है कि ठीक यही मैं कहना चाहता था। मैं न कह पाया, इसने कह दिया। तुमसे जो वाह-वाह निकल जाती है, तुम जो तालियां पीट देते हो, वह इसीलिए कि जहां तुम हार गए थे, वहां यह आदमी जीत गया। इसने बात जमा दी। ठीक वैसी ही कह दी, जैसी तुम चाहते थे कि कहो। . ऋषि की बात दूर पड़ जाती है; बहुत दूर पड़ जाती है। तुम सुन भी लेते हो तो भी सुन नहीं पाते। समझते से भी लगते हो और समझ में आती सी भी नहीं लगती। 84
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy