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अंतर्बाती को उकसाना ही ध्यान
तुम लाख कहो कि मैं टूट गया, बात गलत मालूम होगी, खुद ही गलत मालूम होगी। हाथ टूट गया, पैर टूट गया, आंख चली गई, तुम नहीं चले गए। भूख लगती है, शरीर को लगती है, तुम्हें नहीं लगती। हालांकि तुम कहे चले जाते हो कि मुझे भूख लगी है। प्यास लगती है, शरीर को लगती है। फिर जलधार चली जाती है, तृप्ति हो जाती है, शरीर को होती है।
सब तृप्तियां, सब अतृप्तियां शरीर की हैं। सब आना-जाना शरीर का है। बनना-मिटना शरीर का है। तुम न कभी आते, न कभी जाते। घड़े बनते रहते हैं, मिटते जाते हैं। भीतर का आकाश शाश्वत है। उसे कोई घड़ा कभी छू पाया! उस पर कभी धूल जमी! बादल बनते हैं, बिखर जाते हैं। आकाश पर कोई रेखा छूटती है! तुम पर भी नहीं छूटी। तुम्हारा क्वांरापन सदा क्वांरा है। वह कभी गंदा नहीं हुआ। इस भीतर के सत्य के प्रति जरा आंख बाहर से बंद करो और जागो।
बुद्ध कहते हैं, 'इस शरीर को घड़े के समान अनित्य जान।'
सिद्धांत की तरह मत मान लेना कि ठीक है। क्योंकि तुमने बहुत बार सुना है, महात्मागण समझाते रहते हैं, शरीर अनित्य है, क्षणभर का बुलबुला है, तुमने भी सुन-सुनकर याद कर ली है बात। याद करने से कुछ भी न होगा। जानना पड़ेगा। क्योंकि जानने से मुक्ति आती है। ज्ञान रूपांतरित करता है।
इस चित्त को इस तरह ठहरा ले जैसे कि कोई नगर चट्टान पर बसा हो, या किसी नगर का किला पहाड़ की चट्टान पर बना हो-अडिग चट्टान पर बना हो।
'इस चित्त को नगरकोट के समान दृढ़ ठहरा ले।'
सारी कला इतनी ही है कि मन न कंपे, अकंप हो जाए। क्योंकि जब तक मन कंपता है तब तक दृष्टि नहीं होती। जब तक मन कंपता है तब तक तुम देखोगे कैसे? जिससे देखते थे वही कंप रहा है। ऐसा समझो कि तुम एक चश्मा लगाए हुए हो,
और चश्मा कंप रहा है। चश्मा कंप रहा है, जैसे कि हवा में पत्ता कंप रहा हो, कोई पत्ता कंप रहा हो तूफान में, ऐसा तुम्हारा चश्मा कंप रहा है। तुम कैसे देख पाओगे? दृष्टि असंभव हो जाएगी। चश्मा ठहरा हुआ होना चाहिए। __ मन कंपता हो, तो तुम सत्य को न जान पाओगे। मन के कंपने के कारण सत्य तुम्हें संसार जैसा दिखाई पड़ रहा है। जो एक है, वह अनेक जैसा दिखाई पड़ रहा है, क्योंकि मन कंप रहा है। जैसे कि रात चांद है, पूरा चांद है आकाश में, और झील नीचे कंप रही है लहरों से, तो हजार टुकड़े हो जाते हैं चांद के, प्रतिबिंब नहीं बनता। पूरे झील पर चांदी फैल जाती है, लेकिन चांद का प्रतिबिंब नहीं बनता। हजार टुकड़े हो जाते हैं। फिर झील ठहर गई, लहर नहीं कंपती, सब मौन हो गया, सन्नाटा हो गया, झील दर्पण बन गई, अब चांद एक बनने लगा। अनेक दिखाई पड़ रहा है, अनेक है नहीं। अनेक दिखाई पड़ रहा है कंपते हुए मन के कारण।
मैंने सुना है, एक रात मुल्ला नसरुद्दीन घर आया। शराब ज्यादा पी गया है।
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