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________________ एस धम्मो सनंतनो हो—इधर गिरे कुआं, उधर गिरे खाई। लीजिए हजरत सम्हलिए... बहुत सम्हलकर चलने की बात है। दूसरा प्रश्नः चारों ओर मेरे घोर अंधेरा भूल न जाऊं द्वार तेरा एक बार प्रभु हाथ पकड़ लो। अंधेरा दिखाई पड़ने लगे, मिटना शुरू हो जाता है। क्योंकि न देखने में ही अंधेरे के प्राण हैं। अगर कविता की पंक्तियां ही दोहरा दी हों, तब तो बात दूसरी। अगर ऐसा अनुभव में आना शुरू हो गया हो-चारों ओर मेरे घोर अंधेरा, अंगर यह वचन उधार न हो, सुना-सुनाया न हो, किसी और की थाली से चुराया न हो, अगर इसका थोड़ा स्वाद आया हो, तो जिसे अंधेरा दिखने लगा उसे प्रकाश की पहचान आ गई। क्योंकि बिना प्रकाश की पहचान के कोई अंधेरे को भी देख नहीं सकता। अंधेरा यानी क्या? जब तक तुम प्रकाश को न जानोगे-भला एक किरण सही, भला एक छोटा सा टिमटिमाता चिराग सही-लेकिन रोशनी देखी हो तो ही अंधेरे को पहचान सकोगे। यही तो घटता है बुद्धपुरुषों के पास। तुम अपने अंधेरे को लेकर जब उनकी रोशनी के पास आते हो, तब तुम्हें पहली बार पता चलता है—चारों ओर मेरे घोर अंधेरा। उसके पहले भी तुम अंधेरे में थे। अंधेरे में ही जन्मे, अंधेरे में ही बड़े हुए, अंधेरे में ही पले-पुसे, अंधेरा ही भोजन, अंधेरा ही ओढ़नी, अंधेरा ही बिछौना, अंधेरा ही श्वास, अंधेरा ही हृदय की धड़कन, पहचानने का कोई उपाय न था। इसलिए शास्त्र सत्संग की महिमा गाते हैं, और शास्त्र गुरु की महिमा गाते हैं। उस महिमा का कुल राज इतना है कि जब तक तुम किसी ऐसे व्यक्ति के पास न आ जाओ, जहां प्रकाश जलता हो, जहां दीया जलता हो, तब तक तुम अपने अंधेरे को न पहचान पाओगे। तुलना ही न होगी, पहचान कैसे होगी? विपरीत चाहिए, कंट्रास्ट चाहिए, तो दिखाई पड़ना शुरू होता है। और जब दिखाई पड़ना शुरू होता है, तब घबड़ाहट शुरू होती है। तब जीवन एक बेचैनी हो जाता है। तब कहीं चैन नहीं पड़ता। उठते-बैठते, सोते-जागते, काम करते न करते, सब तरफ भीतर एक खयाल बना रहता है। 228
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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