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प्रेम की आखिरी मंजिल : बुद्धों से प्रेम मिल जाएं और प्रेम में न पड़ना कठिन है। ठीक ही बद्ध कहते हैं कि मेरे प्रेम में मत पड़ना। लेकिन बचना असंभव है।
जिस जगह आकर फरिश्ते भी पिघल जाते हैं जोश
लीजिए हजरत सम्हलिए वह मुकाम आ ही गया फरिश्ते भी जहां पिघल जाते हैं, जहां देवता भी खड़े हों तो प्रेम में पड़ जाएं।
जिस जगह आकर फरिश्ते भी पिघल जाते हैं जोश
लीजिए हजरत सम्हलिए वह मुकाम आ ही गया जब बुद्धों के पास कोई आता है तो ऐसे मुकाम पर आ जाता है कि उनकी शिक्षा है कि प्रेम में मत पड़ना-लेकिन उनका होना ऐसा है कि हम प्रेम में पड़ जाते हैं। उनकी शिक्षा है कि हमें पकड़ना मत, पर कौन होगा पत्थर का हृदय जो उन्हें छोड़ दे?
तो फिर करना क्या है? फिर होगा क्या? होगा यही कि ऐसे भी पकड़ने के ढंग हैं, जिनको पकड़ना नहीं कहा जा सकता। प्रेम की ऐसी भी सूरतें हैं, जिनमें आसक्ति नहीं। लगाव की ऐसी भी शैलियां हैं, जिनमें लगाव नहीं। प्रेम में डूबा भी जा सकता है और प्रेम के बाहर भी रहा जा सकता है। मैं तुमसे कहता हूं, जैसे जल में कमल, ऐसे बुद्ध के पास रहना होता है। प्रेम में पड़ते भी हैं, और अपना दामन बचाकर चलते भी। इस विरोधाभास को जिसने साध लिया, वही बुद्धों के सत्संग के योग्य होता है।
इनमें से दो में से तुमने अगर एक को साधा, अगर तुम प्रेम में पड़ गये, जैसे कि कोई साधारण जगत के प्रेम में पड़ जाता है, तो प्रेम बंधन हो जाता है। तब बुद्ध से तुम्हारा संबंध तुमने सोचा जुड़ा, बुद्ध की तरफ से टूट गया। तुमने समझा तुम पास रहे, बुद्ध की तरफ से तुम हजार-हजार मील दूर हो गये। अगर तुमने सोचा कि संबंध बनाएंगे ही नहीं, क्योंकि संबंध बंधन बन जाता है, तो तुम बुद्ध के पास दिखाई पड़ोगे, लेकिन पास न पहुंच पाओगे। बिना प्रेम के कभी कोई पास आया? • तो मैं तुमसे बड़ी उलझन की बात कह रहा हूं। प्रेम भी करना और सावधान भी रहना। प्रेम भी करना और प्रेम की जंजीरें मत बनाना। प्रेम करना और प्रेम का मंदिर बनाना। प्रेम करना और प्रेम को मुक्ति बनाना।
जिस जगह आकर फरिश्ते भी पिघल जाते हैं जोश
लीजिए हजरत सम्हलिए वह मुकाम आ ही गया बहुत सम्हल-सम्हलकर सत्संग होता है। सत्संग का खतरा यही है कि तुम प्रेम में पड़ सकते हो। और सत्संग का यह भी खतरा है कि प्रेम से बचने के ही कारण तुम दूर भी रह सकते हो। दूर रहोगे तो चूकोगे, प्रेम बंधन बन गया तो चूक जाओगे, ऐसी मुसीबत है! पर ऐसा है। कुछ करने का उपाय नहीं। सम्हल-सम्हलकर चलना है। इसलिए सत्संग को खड्ग की धार कहा है। जैसे तलवार की धार पर कोई चलता
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