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प्रेम की आखिरी मंजिल : बुद्धों से प्रेम तुम्हारे भीतर कोई ताले खुल जाएंगे, गौर से देखते-देखते। तुम्हारे भीतर कोई चाबी लग जाएगी, कोई द्वार अचानक खुल जाएगा।
हमने संगमरमर में मूर्तियां बनायीं, क्योंकि संगमरमर पत्थर भी है और कोमल भी। बुद्ध पत्थर जैसे कठोर हैं और फूल जैसे कोमल। तो हमने संगमरमर चुना। संगमरमर कठोर है, पर शीतल। बुद्ध पत्थर जैसे कठोर हैं, पर उन जैसा शीतल, उन जैसा शांत तुम कहां पाओगे? हमने संगमरमर की मूर्तियां चुनीं। क्योंकि बुद्ध जब जीवित थे तब भी वे ऐसे ही शांत बैठ जाते थे, कि दूर से देखकर शक होता कि आदमी है या मूर्ति? __ मैंने एक बड़ी पुरानी कहानी सुनी है। एक बहुत बड़ा मूर्तिकार हुआ। उस मूर्तिकार को एक ही भय था सदा, मौत का। जब उसकी मौत करीब आने लगी, तो उसने अपनी ही ग्यारह मूर्तियां बना लीं। वह इतना बड़ा कलाकार था कि लोग कहते थे, अगर वह किसी की मूर्ति बनाए तो पहचानना मुश्किल है कि मूल कौन है, मूर्ति कौन है। मूर्ति इतनी जीवंत होती थी।
जब मौत ने द्वार पर दस्तक दी, तो वह अपनी ही ग्यारह मूर्तियों में छिपकर खड़ा हो गया। श्वास उसने साध ली। उतना ही फर्क था कि वह श्वास लेता, मूर्तियां श्वास न लेती। उसने श्वास रोक ली। मौत भीतर आई और बड़े भ्रम में पड़ गई। एक को लेने आई थी, यहां बारह एक जैसे लोग थे। लेकिन मौत को धोखा देना इतना आसान तो नहीं। मौत ने जोर से कहा, और सब तो ठीक है, एक जरा सी भूल रह गई। वह चित्रकार बोला, कौन सी भूल? मौत ने कहा, यही कि तुम अपने को न भूल पाओगे।
लेकिन अगर बुद्ध खड़े होते वहां, तो उतनी भूल भी न रह गई थी। उतनी भी भूल न रह गई थी, अपनी याद भी न रह गई थी। अपना होना भी न रह गया था। अगर बुद्ध को तुम ठीक से समझोगे, तो उनके स्वाभिमान में भी तुम विनम्रता को लहरें लेते देखोगे। उनके होने में भी तुम न होने का स्वाद पाओगे।
नियाज की ही मेरे नाज में भी शान रही
खुदी की लहर भी आई तो बेखुदी की तरह नियाज की ही मेरे नाज में भी शान रही—मेरी अस्मिता में, मेरे स्वाभिमान में भी विनम्रता की ही शान रही, उसकी ही महिमा के गीत चलते रहे। खुदी की लहर भी आई-और कभी मैंने समझा भी कि मैं हूं-खुदी की लहर भी आई तो बेखुदी की तरह। इस तरह समझा कि जैसे नहीं हूं।
हमने संगमरमर में बुद्ध को खोदा। कभी बुद्ध की प्रतिमाओं के पास बैठकर गौर से देखो। यह पत्थर में जो खुदा है, इसमें बहुत कुछ छिपा है। बुद्ध की आंखें देखो, बंद हैं। बंद आंखें कहती हैं कि बाहर जो दिखाई पड़ता था, अब व्यर्थ हो गया। अब भीतर देखना है। यात्रा बदल गई। अब बाहर की तरफ नहीं जाते हैं, अब
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