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________________ समझ और समाधि के अंतरसूत्र व्यर्थ की बातें मत निकालो, नहीं तुम सोचते ही रहोगे। प्रत्येक पल सोचने में गंवाया, बड़ा महंगा है। क्योंकि उसी पल में सब कुछ उपलब्ध हो सकता था। दूसरा प्रश्नः बुद्ध के देह में जीवित रहते उनका भिक्षु-संघ एकता में रहा। लेकिन बुद्ध के देह-विसर्जन के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया, बुद्ध-धर्म अनेक शाखाओं एवं प्रशाखाओं में बंटने लगा। अज्ञानी संप्रदाय बनाते हैं, लेकिन बुद्ध के ज्ञानी शिष्य भी अनेक विभिन्न एवं विपरीत संप्रदायों में बंट गए। कृपया इस घटना पर कुछ प्रकाश डालें। अज्ञानी संप्रदाय बनाते हैं। ज्ञानी भी संप्रदाय बनाते हैं। लेकिन अज्ञानी का संप्रदाय कारागृह हो जाता है और ज्ञानी का संप्रदाय मुक्ति की एक राह। संप्रदाय का अर्थ होता है, मार्ग। संप्रदाय का अर्थ होता है, जिससे पहुंचा जा सकता है। ज्ञानी मार्ग से पहुंचते हैं, मार्ग बनाते भी हैं। अज्ञानी मार्ग से जकड़ जाते हैं, पहुंचते नहीं। मार्ग बोझिल हो जाता है। छाती पर पत्थर की तरह बैठ जाता है। ज्ञानी मार्ग का उपयोग कर लेते हैं, अज्ञानी मार्ग से ही बंध जाते हैं। संप्रदाय में कुछ बुराई नहीं है, अगर पहुंचाता हो। संप्रदाय शब्द बड़ा बहुमूल्य है। जिससे पहुंचा जाता है, वही संप्रदाय है। लेकिन बड़ा गंदा हो गया। लेकिन गंदा हो जाने का कारण संप्रदाय नहीं है। अब कोई नाव को सिर पर रखकर ढोए तो इसमें नाव का क्या कसूर है ? क्या तुम नाव के दुश्मन हो जाओगे, कि लोग नाव को सिर पर रखकर ढो रहे हैं। मूढ़ तो ढोएंगे ही। नाव न होती, कुछ और ढोते। मंदिर-मस्जिद न होते लड़ने को तो किसी और बात से लड़ते। कुछ और कारण खोज लेते। जिन्हें जाना नहीं है, वे मार्ग के संबंध में विवाद करने लगते हैं। जिन्हें जाना है, वे मार्ग का उपयोग कर लेते हैं। और जिसने मार्ग का उपयोग कर लिया, वह मार्ग से मुक्त हो जाता है। जिसने नाव का उपयोग कर लिया, वह नाव को सिर पर थोड़े ही ढोता है! नाव पीछे पड़ी रह जाती है, रास्ते पीछे पड़े रह जाते हैं। तुम सदा आगे बढ़ते चले जाते हो। संप्रदाय में अपने आप कोई भूल-भ्रांति नहीं है। भूल-भ्रांति है तो तुम में है। तुम तो औषधि को भी जहर बना लेते हो। बड़े कलाकार हो! तुम्हारी कुशलता का क्या कहना! जो जानते हैं वे जहर को भी औषधि बना लेते हैं। वक्त पर काम पड़ 133
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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