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पहला प्रश्न :
समझ और समाधि के अंतरसूत्र
तो
महाकाश्यप उस दिन सुबह खिलखिलाकर न हंसा होता, भी क्या बुद्ध उसे मौन के प्रतीक फूल को देते ?
प्रश्न पूछते समय थोड़ा सोचा भी करें कि प्रश्न का सार क्या है। यदि ऐसा हुआ होता ! यदि वैसा हुआ होता ! इन सारी बातों में क्यों व्यर्थ समय को व्यतीत करते हो ?
काর
महाकाश्यप न हंसा होता तो बुद्ध फूल देते या न देते, इससे तुम्हें क्या होगा ? महाकाश्यप न भी हुआ हो, हुआ हो, कहानी सिर्फ कहानी हो, तो भी तुम्हें क्या होगा? कुछ अपनी पूछो। कुछ ऐसी बात पूछो जो तुम्हारे काम पड़ जाए। प्रश्न ऐसे न हों कि सिर्फ मस्तिष्क की खुजलाहट हों, क्योंकि खुजलाहट का गुण है जितना खुजाओ बढ़ती चली जाती है। पूछने के लिए ही मत पूछो। अगर न हो प्रश्न तो पूछो ही मत । चुप बैठेंगे, शायद तुम्हारे बीच कोई महाकाश्यप हंस दे ।
हंसना न हंसना महत्वपूर्ण नहीं है। बाहर जो घटता है उसका कोई मूल्य बुद्धपुरुषों के लिए नहीं है। फूल तो महाकाश्यप को दिया ही होता । वह अकेला ही था वहां जो बुद्ध के मौन को समझ सकता था । हर हालत में फूल उसके पास गया
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