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________________ केवल शिष्य जीतेगा की। चोर होना बराबर है। दो लाख से ज्यादा का नहीं होता, दो पैसे से कम का नहीं होता। चोर होने की भावदशा बस काफी है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। दो लाख और दो पैसे का भेद बाजार में है। लेकिन दो लाख और दो पैसे की चोरी का भेद धर्म में नहीं हो सकता। चोरी यानी चोरी। लेकिन यह तो उसे दिखाई पड़ेगा जिसका भीतर का दीया जल रहा है। फिर पाप पाप है। बड़ा-छोटा नहीं है। पुण्य पुण्य है। छोटा-बड़ा नहीं है। लेकिन जब तक तुम दूसरों के पीछे चल रहे हो, जब तक तुम जानकारी को ही जीवन मानकर चल रहे हो, और पांडित्य से तुम्हारे जीवन को मार्गदर्शन मिलता है, तब तक तुम ऐसे ही भटकते रहोगे। शिष्य वही है जिसने अपने को जगाने की तैयारी शुरू की। शिष्य वही है जिसके लिए पांडित्य व्यर्थ दिखाई पड़ गया और अब जो बुद्धत्व को खोजने निकला है। और जैसे ही तुम्हारे जीवन में यह क्रांति घटित होती है, शिष्यत्व की संभावना बढ़ती है, बड़े अंतर पड़ने शुरू हो जाते हैं। तब तुम और ही ढंग से सुनते हो। तब तुम और ही ढंग से उठते हो। तब तुम और ही ढंग से सोचते हो। तब जीवन की सारी प्रक्रियाओं का एक ही केंद्र हो जाता है कि कैसे जागू? कैसे यह नींद टूटे? कैसे यह कटघरा पुनरुक्ति का मिटे और मैं बाहर आ जाऊं? तब तुम्हारा सारा उपक्रम एक ही दिशा में समर्पित हो जाता है। शिष्य का जीवन एक समर्पित जीवन है। उसके जीवन में एक ही अभीप्सा है, सब द्वारों से वह एक ही उपलब्धि के लिए चेष्टा करता है, द्वार खटखटाता है कि मैं कैसे जाग जाऊं? और जिसके जीवन में ऐसी अभीप्सा पैदा हो जाती है कि मैं कैसे जाग जाऊं, उसे कौन रोक सकेगा जागने से? उसे कोई शक्ति रोक नहीं सकती। वह जाग ही जाएगा। आज चाहे जागने की आकांक्षा बड़ी मद्धिम मालूम पड़ती हो, लेकिन बूंद-बूंद गिरकर जैसे चट्टान टूट जाती है, ऐसी बूंद-बूंद आकांक्षा जागने की तंद्रा को तोड़ देती है। तंद्रा कितनी ही प्राचीन हो और कितनी ही मजबूत हो, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। ___'इस शरीर को फेन के समान जान; इसकी मरीचिका के समान प्रकृति को पहचान; मार के पुष्प-जाल को काट; यमराज की दृष्टि से बचकर आगे बढ़।' । तुम जहां बैठे हो वहां कुछ पाया तो नहीं, फिर किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? तुम जहां बैठे हो वहां कुछ भी तो अनुभव नहीं हुआ, अब तुम राह क्या देख रहे हो? न कोई वादा न कोई यकीं न कोई उम्मीद मगर हमें तो तेरा इंतजार करना था। न तो किसी ने कोई वादा किया है वहां मिलने का, न तुम्हें यकीन है कि कोई मिलने वाला है, न तुम्हें कोई उम्मीद है, क्योंकि जीवनभर वहीं बैठ-बैठकर तुम थक गए हो-नाउम्मीद हो गए हो–लेकिन फिर भी इंतजार किए जा रहे हो। कितनी 115
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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