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एस धम्मो सनंतनो
चलने को चल रहा हूं पर इसकी खबर नहीं
मैं हूं सफर में या मेरी मंजिल सफर में है ___ जीवन यदि चलने से ही पूरा हो जाता, तो सभी मंजिल पर पहुंच गए होते। क्योंकि चलते तो सभी हैं। चलते ही नहीं, दौड़ते हैं। सारा जीवन चुका डालते हैं उसी दौड़ में, पर पहुंचता कभी कोई एकाध है-करोड़ों में, सदियों में। ___ यह चलना कैसा, जो पहुंचाता नहीं? यह जीना कैसा, जिससे जीवन का स्वाद आता नहीं? यह होने का कैसा ढंग है ? न होने के बराबर। भटकना कहो इसे, चलना कहना ठीक नहीं। जब पहुंचना ही न होता हो, तो चलना कहना उचित नहीं है। मार्ग वही है जो मंजिल पर पहुंचा दे। चलने से ही कोई मार्ग नहीं होता, मंजिल पर पहुंचने से मार्ग होता है। __ पहुंचते केवल वे ही हैं, जो जागकर चलते हैं। चलने में जिन्होंने जागने का गुण भी जोड़ लिया, उनका भटकाव बंद हो जाता है। और बड़े आश्चर्य की बात तो यही है कि जिन्होंने जागने को जोड़ दिया चलने में, उन्हें चलना भी नहीं पड़ता और पहुंच जाते हैं। क्योंकि जागना ही मंजिल है। ___ तो दो ढंग से जी सकते हो तुम। एक तो चलने का ही जीवन है, चलते रहने का। केवल थकान लगती है हाथ। राह की धूल लगती है हाथ। आदमी गिर जाता है आखिर में कब्र में, मुंह के बल। उसे ही मंजिल मान लो, तब बात और! ____एक और ढंग है चलने का-होशपूर्वक, जागकर। पैरों का उतना सवाल नहीं है जितना आंखों का सवाल है। शक्ति का उतना सवाल नहीं है जितना शांति का सवाल है। नशे-नशे में, सोए-सोए कितना ही चलो, पहुंचोगे नहीं।
यह चलना तो कोल्हू के बैल जैसा है। आंखें बंद हैं कोल्हू के बैल की, चलता चला जाता है। एक ही लकीर पर वर्तुलाकार घूमता रहता है। अपने जीवन को थोड़ा विचारो, कहीं तुम्हारा जीवन भी तो वर्तुलाकार नहीं घूम रहा है? जो कल किया था वही आज कर रहे हो। जो आज कर रहे हो वही कल भी करोगे। कहीं तो तोड़ो इस वर्तुल को। कभी तो बाहर आओ इस घेरे के। ___यह पुनरुक्ति जीवन नहीं है। यह केवल आहिस्ता-आहिस्ता मरने का नाम है। जीवन तो प्रतिपल नया है। मौत पुनरुक्ति है। इसे तुम परिभाषा समझो। अगर तुम वही दोहरा रहे हो, जो तुम पहले भी करते रहे हो, तो तुम जी नहीं रहे हो। तुम जीने का सिर्फ बहाना कर रहे हो। सिर्फ थोथी मुद्राएं हैं, जीवन नहीं। तुम जीने का नाटक कर रहे हो। जीना इतना सस्ता नहीं है। रोज सुबह उठते हो, फिर वही शुरू हो जाता है। रोज सांझ सोते हो, फिर वही अंत हो जाता है। __कहीं से तोड़ो इस परिधि को। और इस परिधि को तोड़ने का एक ही उपाय है, जो बुद्धपुरुषों ने कहा है-आंख खोलो। कोल्हू का बैल चल पाता है एक ही चक्कर
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