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________________ अनंत छिपा है क्षण में तुमने कभी खयाल भी किया होगा, तुम परेशान हो, दुखी हो, चांद को देखते हो, उदास मालूम होता है। उसी रात तुम्हारे ही पड़ोस में कोई प्रसन्न है, आनंदित है, उसी चांद को देखता है और लगता है आनंद बरस रहा है। ___ तुम्हारी दृष्टि ही तुम्हारा संसार है। और मोक्ष का अर्थ है, सारी दृष्टि का खो जाना। न सफेद, न लाल। जब कोई भी दृष्टि नहीं रह जाती तुम्हारी, तब तुम्हें वह दिखाई पड़ता है, जो है। उसको परमात्मा कहो, निर्वाण कहो। - साधु को भी जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। असाधु को भी जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। शैतान को जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। संत को जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। जो है, वह तो तभी दिखाई पड़ता है जब तुम्हारी कोई भी दृष्टि नहीं होती। तब तुम कुछ भी नहीं जोड़ते। ___ इसलिए बुद्ध ने तो उस परमदशा में आनंद है, ऐसा भी नहीं कहा। क्योंकि वह भी दृष्टि है। फूल हैं, ऐसा भी नहीं कहा। कांटे हैं, ऐसा भी नहीं कहा। क्योंकि कांटे तुम्हारी दुख की दृष्टि से पैदा होते थे, आनंद तुम्हारे आनंद की दृष्टि से पैदा हो रहा है। कांटों में भी तुम थे, फूलों में भी तुम हो। एक ऐसी भी घड़ी है निर्वाण की जब तुम होते ही नहीं; तब एक परमशून्य है। इसलिए बुद्ध ने कहा, निर्वाण, परमशून्यता। जहां कुछ भी नहीं है। जहां वही दिखाई पड़ता है, जो है। अब उसे कहने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि उसे कांटा कहो तो गलत होगा, फूल कहो तो गलत होगा, दुख कहो तो गलत होगा। तो तीन दशाएं हैं। एक दुख की दशा है। तब तुम्हें चारों तरफ कांटे दिखाई पड़ते हैं। फूल केवल तुम्हारे सपने में होते हैं। कांटा चुभता है वस्तुतः और फूल केवल आशा में होता है। यह एक दशा। फिर एक आनंद की दशा है, जब चारों तरफ फूल होते हैं। कांटे सब खो गए होते हैं, कहीं कोई कांटा नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन कांटा संभावना में छिपा होता है। क्योंकि फूल अगर है, तो कांटा कहीं संभावना में छिपा होगा। फिर एक तीसरी परमदशा है। न कांटे हैं, न फूल हैं। उस परमदशा को ही आनंद कहो। वह सुख के पार, दुख के पार। कांटे के पार, फूल के पार। आज इतना ही। 103
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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