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________________ अनंत छिपा है क्षण में वह अपनी धूप भी जलाती तो हवाओं में यहां-वहां न फैलने देती, उसे वापस धक्के दे-देकर अपने छोटे से बुद्ध को ही पहुंचा देती । फूल भी चढ़ाती तो भी डरी रहती कि गंध कहीं यहां-वहां न उड़ जाए। फिर एक बड़ी मुसीबत हुई एक रात। वह एक मंदिर में ठहरी। चीन में एक बहुत प्राचीन मंदिर है, हजार बुद्धों का मंदिर है। वहां हजार बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। वह डरी। और सभी प्रतिमाएं बुद्ध की हैं, तो भी डर ! वह डरी, कि यहां अगर मैंने धूप जलाई, अगरबत्तियां जलायीं, फूल चढ़ाए, तो यह धुआं तो कोई मेरे बुद्ध पर नहीं रुका रहेगा। यहां-वहां जाएगा। दूसरे बुद्धों पर पहुंचेगा। बुद्ध भी दूसरे ! जिनकी प्रतिमा वह रखे है उन्हीं की प्रतिमाएं वे भी हैं। तालाब हैं, सरोवर हैं, सागर हैं, लेकिन चांद का प्रतिबिंब अलग कितना ही हो, एक ही चांद का है। तो उसने एक बांस की पोंगरी बना ली, और धूप जलाई और बांस की पोंगरी में से धूप को अपने बुद्ध की नाक तक पहुंचाया। सोने की बुद्ध की प्रतिमा का मुंह काला हो गया । वह बड़ी दुखी हुई। वह सुबह मंदिर के प्रधान भिक्षु के पास गई और उसने कहा बड़ी मुश्किल हो गई। इसे कैसे साफ करूं? वह प्रधान हंसने लगा। उसने कहा, पागल ! तेरे सत्संग में तेरे बुद्ध का चेहरा तक काला हो गया। गलत साथ करो, यह मुसीबत होती है । इतनी भी क्या कृपणता! ये सभी प्रतिमाएं उन्हीं की हैं। इतनी भी क्या कंजूसी ! अगर थोड़ा धुआं दूसरों के पास भी पहुंच गया होता, तो कुछ हर्ज हुआ जाता था ? लेकिन मेरे बुद्ध ! ये सभी प्रतिमाएं बुद्धों की ही हैं। हर आंख से वही झांका है। हर पत्थर में वही सोया है। तुम इसकी फिकर ही मत करो। तुम्हारे जीवन में आनंद भरे – प्रेम दो, गीत दो, संगीत दो, नाचो; बांटों । इसी की तो प्रतीक्षा रही है कि कब वह क्षण आएगा जब हम बांट सकेंगें। अब पात्र-अपात्र का भी भेद छोड़ो। वे सब नासमझी के भेद हैं। इसलिए शक्ति के संबंध में कुछ बोलता नहीं हूं। क्योंकि जो मैं बोल रहा हूं अगर समझ में आया, तो शक्ति कभी समस्या न बनेगी। इसलिए भी शक्ति के संबंध में नहीं बोलता हूं, क्योंकि वह शब्द जरा खतरनाक है। शांति के संबंध में बोलता हूं, शक्ति के संबंध में नहीं बोलता । क्योंकि शक्ति अहंकार की आकांक्षा है। शक्ति शब्द सुनकर ही तुम्हारे भीतर अहंकार अंगड़ाई लेने लगता है । अहंकार कहता है, ठीक, शक्ति तो चाहिए । इसीलिए तो तुम धन मांगते हो, ताकि धन से शक्ति मिलेगी। पद मांगते हो, क्योंकि पद पर रहोगे तो शक्तिशाली रहोगे । यश मांगते हो, पुण्य मांगते हो, लेकिन सबके पीछे शक्ति मांगते हो। योग और तंत्र में भी खोजते हो, शक्ति ही खोजते हो । शक्ति की पूजा तो संसार में चल ही रही है । इसलिए मैं शक्ति की बात नहीं करता, क्योंकि धर्म के नाम पर भी अगर तुम शक्ति की ही खोज करोगे, तो वह अहंकार की ही खोज रहेगी। और जब तक अहंकार है तब तक शक्ति उपलब्ध नहीं 83
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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