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________________ एस धम्मो सनंतनो जो प्रेम किया जाता है, वह प्रेम नहीं। तुम चिकित्सक के पास जाते हो। वह निदान करता है बीमारी का, वह औषधि देता है बीमारी मिटा देने को। जब बीमारी हट जाती है, तो जो शेष रह जाता है वही स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य की अलग से चर्चा करनी फिजूल है। और खतरा भी है। क्योंकि तुमसे अगर यह कहा जाए कि प्रेम करो, तो तुम वैर तो न छोड़ोगे, प्रेम करना शुरू करोगे। क्योंकि करना तुम्हें सदा आसान मालूम पड़ता है, क्योंकि करना अहंकार को तृप्ति देता है। तुम प्रेम करना शुरू करोगे। वैर तो न छोड़ोगे, प्रेम करोगे। तो ऐसा हो सकता है कि तुम वैर को प्रेम में ढांक दो। वैर तो बना रहे और प्रेम के आवरण में ढांक दो। तब तुम्हारा प्रेम भी झूठा होगा। क्योंकि वैर के ऊपर प्रेम कैसे खड़ा हो सकता है? तुमने बहुत बार प्रेम किया है। तुम जानते हो भलीभांति, तुम्हारे प्रेम से घृणा मिटती नहीं। दब जाती हो भला। राख में दब जाता हो अंगारा, मिटता नहीं। तुम प्रेम भी करते हो उसी को, घृणा भी करते हो उसी को। सांझ उसके गीत गाते हो, सुबह गालियां देते हो उसी को। अभी उसके लिए मरने को तैयार थे, क्षणभर बाद उसी को मारने को तैयार हो जाते हो। यह तुम्हारा प्रेम बुद्ध भलीभांति जानते हैं। यह प्रेम घृणा को मिटाता नहीं, घृणा को सजा भला देता हो। आभूषण पहना देता हो, घृणा को सुंदर बना देता हो, जहर पर अमृत का लेबल लगा देता हो, लेकिन मिटाता नहीं। इसलिए बुद्ध ने प्रेम की बात ही नहीं की। बुद्ध ने कहा, अवैर। तुम वैर छोड़ दो। तुम घृणा छोड़ दो। फिर जो शेष रह जाएगा, वही प्रेम है। और इस प्रेम का गुण-धर्म अलग है। तुम जो प्रेम करते हो, वह भी कृत्य है। बुद्ध जिस प्रेम की बात कर रहे हैं, वह कृत्य नहीं है। ना ही कोई संबंध है। वह तुम्हारा स्वभाव है। अभी तुम कहते हो, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। तुम्हारे हाथ में है। चाहो तो करो, चाहो तो अलग कर लो। कल कह दो कि नहीं करता। लेकिन जिसके जीवन से वैर चला गया, वह ऐसा नहीं कह सकता कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, और अलग कर लेता हूं। वह तो ऐसे ही कहेगा, मैं प्रेम हूं। तुम चाहे भला करो, चाहे बुरा करो, मैं प्रेम हूं। यह प्रेम मेरा स्वभाव है। तुम मुझे मारो तो, तुम मेरी सेवा करो तो। तुम आदर करो, अनादर करो। तुम्हारा कृत्य अब अर्थ नहीं रखता। मेरे प्रेम में कोई अंतर न पड़ेगा। एक आदमी ने बुद्ध के मुंह पर थूक दिया। उन्होंने अपनी चादर से थूक पोंछ लिया। और उस आदमी से कहा, कुछ और कहना है? क्योंकि बुद्ध ने कहा, यह भी तेरा कुछ कहना है, वह मैं समझ गया; कुछ और कहना है ? आनंद तो बहुत क्रोधित हो गया, उनका शिष्य। वह कहने लगा, यह सीमा के बाहर बात हो गयी। आप पर, और कोई थूक दे, और हम बैठे देखते रहें? जान लेने-देने का सवाल हो गया। आप आज्ञा दें, मैं इस आदमी को ठीक करूं। क्षत्रिय था आनंद। बुद्ध का 48
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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