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यात्री, यात्रा, गंतव्य : तुम्हीं 'जो भिक्षु अप्रमाद में रत है, वह आग की भांति छोटे-मोटे बंधनों को जलाता हुआ बढ़ता है।'
'जो भिक्षु अप्रमाद में रत है अथवा प्रमाद में भय देखता है, उसका पतन होना संभव नहीं है । वह तो निर्वाण के समीप पहुंचा हुआ 'है ।'
लेकिन ध्यान रखनाः समीप । बुद्ध एक-एक शब्द के संबंध में बहुत - बहुत हिसाब से बोलते हैं। अप्रमाद सिर्फ समीप है। जब अप्रमाद भी छूट जाएगा, तब निर्वाण । बेहोशी तो जाएगी ही, होश भी चला जाएगा। क्योंकि बेहोशी और होश दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । पराया तो छूटेगा ही, स्वयं का होना भी छूट जाएगा। क्योंकि पराया और स्वयं दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं। तू तो मिटेगा ही, मैं भी मिट जाएगा। क्योंकि मैं और तू एक ही चर्चा के दो हिस्से हैं, एक ही संवाद के दो छोर हैं ।
लेकिन जो अप्रमाद में रत है, उसका कोई पतन नहीं होता। ऐसे ही जैसे दीया हाथ में हो तो तुम टकराते नहीं । घर में अंधेरा हो और तुम अंधेरे में चलो तो कभी कुर्सी से, कभी मेज से, कभी दीवाल से टकराते हो । हाथ में दीया हो, फिर टकराना कैसा ? फिर तुम्हें राह दिखायी पड़ती है। असली सवाल राह का खोज लेना नहीं है, असली सवाल हाथ में दीए का होना है।
इसलिए बुद्ध का आखिरी वचन, जो उन्होंने इस पृथ्वी पर अंतिम शब्द कहे- - आनंद ने पूछा, हम क्या करेंगे? तुम जाते हो, तुम्हारे रहते हम कुछ न कर पाए, दिन और रात हमने बेहोशी में गंवा दिए, तुम्हें सुना और समझ न पाए, तुमने जगाया और हम जागे नहीं, अब तुम जाते हो, अब हमारा क्या होगा – बुद्ध ने कहा, इस बात को सूत्र की तरह याद रखना, क्योंकि मैं तुम्हारे काम नहीं पड़ सकता : अप्प दीपो भव। तुम अपने दीए बनो, क्योंकि वही काम पड़ सकता है।
अप्रमाद यानी अप्प दीपो भव ! अपने दीए बनो । जागो । होशपूर्वक जीयो ।
संसार यही है। जो बेहोशी में जीता है, वह माया में; जो होश में जीता है, वह ब्रह्म में। जीने की शैली बदल जाती है, जीने की जगह थोड़े ही बदलती है । यही है सब - यही वृक्ष, यही पौधे, यही पक्षी, यही झरने – तुम बदल जाओगे । लेकिन जब दृष्टि बदल जाती है, तो सब सृष्टि बदल जाती है।
आज इतना ही ।
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